तुलसी दल

  गाँव नवलपुर। लीलावती, अपने पति और दो नन्हीं बेटियों के साथ बसर कर रहीं थीं। पतिदेव की बाज़ार में ठीक चौराहे पर एक दुकान थी, अपनी। उसी में रोज़मर्रा के सामान बेचकर परिवार का गुज़ारा चलता था। मगर पतिदेव को भगवान का बुलावा ज़ल्दी आ गया। पतिदेव रहे नहीं, बच्चियाँ दोनों छोटी थीं, जिनकी देखभाल लीलावती के सिवाय करने वाला कोई और था नहीं। ऐसे में घर का खर्च कैसे चलता? आख़िर चूल्हा जलने के लिए आमदनी तो होनी चाहिए न। गाँव के बहुत सारे लोगों ने लीलावती से सहानुभूति दिखाते हुए अनेकों सुझाव दिए। कोई बोलता कि विधवा पेंशन पास करवा देंगे। तो कोई कन्या धन की योजना बताता। फिर बड़े होने पर बेटी पढ़ाओ की योजना, फिर बेटी ब्याहो योजना! योजना सब बताते थे सरकार की ही, लेकिन भूमिका ऐसी बाँधते, जैसे वे ही सरकार हों। जब अपना वज़न हल्क़ा हो, तो दुसरे का हल्का-सा काम भी भारी एहसान बन जाता है। लीलावती निश्छल थीं। वो लोगों का एहसान मानतीं थीं। उनको लगता था कि अगर कोई भले ही साथ हाथ पकड़कर न चले, लेकिन रास्ते पर उजियारा करने वाले का एहसान चुकता नहीं किया जा सकता। उनके हिसाब से रास्ता दिखाने के मूल्य को पैसे से आँका नहीं जा सकता। हालात से लड़ना ज़रूरी है, मगर  उससे पहले ज़रूरी है उसको स्वीकारना। लीलावती ने भी अपने वर्तमान को गले लगाया। आमदनी के लिए अपनी दुकान को भाड़े पर चढ़ा दिया। 

   पति के गुज़रे साल बीते, दो साल बीते, लेकिन लोगों की हाल-चाल पूछने की वाली बात हमेशा लीलावती को उसी जगह पर धकेल देती, जहाँ पर उनके पति ने अंतिम विदाई ली थी। याद दिलाने का काम कुछ लोग अनजाने में करते। बहुतेरे जान बूझकर लीलावती को भूलने नहीं देना चाहते थे कि वो अब अकेली हैं। वो अबला जो ठहरीं! भविष्य में दोनों बेटियों का ब्याह हो जाएगा, उसके बाद? तब तो उनके लिए गाँव के लोग ही अंधे की लकड़ी बनेंगे। उनको रोज़मर्रा की ज़रूरतों में खड़े होंगे।तब कौन सेवा-सत्कार करेगा? कौन पानी देगा? कौन उनका क्रिया-कर्म करेगा। कौन पानी देगा? इन सब हालातों के इर्द-गिर्द लोग लीलावती के जीवन की थोड़ी बहुत उथली-पुथली ज़मीन में पहाड़ और खाई ढूँढने लगे। भविष्य की आड़ में आज को डराने का काम चलता रहा। भविष्य जाता भाँड़ में, लीलावती इन रोज़ की सहानुभूतियों के बाढ़ में डूबने-सी लगीं। कुशल पूछने का मंजर कुछ यूँ हो चला कि लीलावती लोगों से कतराने लगीं थीं। वो सबसे नज़रें चुराने लगीं थीं। 

  लीलावती दोनों बेटियों को बड़ी ही मुश्किल से पालन-पोषण कर पाईं। उस दुकान के अलावा दूसरी कोई और मिल्कियत न थी। घर का सारा भार उस दुकान के कंधों पे था। लेकिन उन कंधों की सीमा यही थी कि तीनों माँ-बेटियों को ज़रूरत भर भोजन ही ढो पाते थे। बेटियों के पठन-पाठन की ज़िम्मेदारी गाँव के सरकारी विद्यालयों ने बख़ूबी निभाई। उनकी स्कूलों की भी सीमा यही रही कि वे दर्ज़े डकाने के सिवाय कुछ ख़ास पल्ले पड़ा नहीं पाए। लीलावती इतनी पढ़ीं-लिखीं थीं नहीं, जो बेटियों की कलम को दिशा दे पातीं। गाँव के पढ़े-लिखों ने लड़कियों की पढ़ाई में कभी रुचि ली नहीं। गाँव शहर का पिता है। गाँव का हृदय शहर से हमेशा बड़ा रहा है। जब बीमा कंपनियाँ नहीं थीं, तो गाँव में लोग एक दूसरे के बीमे हुआ करते थे। इस बीमे की कोई काग़जी लिखा-पढ़ी नहीं हुआ करती थी। कोई दफ़न हुई, छिपी-छिपाई शर्तें नहीं हुआ करती थीं। बस मानवता का एक कोरा काग़ज़ होता था और उस पर हर आदमी अपने आदमी होने की छाप लगा देता था। लेकिन अब गाँव का हृदय सिकुड़ रहा है , वह भी शहर की ओर भाग रहा है। यही कारण है कि बीमे की फसल शहर में उपजकर अब गाँव में पैर पसार रही है। लोगों को लगता था कि अगर बेटियाँ अच्छे से पढ़-लिख जाएँगी, तो कल को अपने अधिकार की बातें करेंगी। क्या पता शादी के बाद उसी गाँव में ही न अपना परिवार बसा लें। समाज ने उनको प्रकाश तो दिखलाया लेकिन चन्द्रमा का, जो ख़ुद सूरज की परछाई से रोशनी पाता है, समय के साथ डूबता-उतिराता है। लोगों ने समरस उजाला करने वाला सूरज उनके रास्तों में कभी नहीं पड़ने दिया। कुछ नेकदिल भी थे। गाँव के भले मानुष ने राय दी कि आज के ज़माने में लड़के वाले बी॰ए॰ लड़की माँगते हैं। हाथ पीले करवाने के लिए बी॰ए॰ की सफ़ेद डिग्री ज़रूरी थी। उसी गाँव के एक महानुभाव का अपना महाविद्यालय था। लीलावती ने उनसे डिग्री की गुहार लगाई। पचीस-पचीस हज़ार नगद में दोनों की बी॰ए॰ की डिग्री पाने का भरोसा ले गईं। समय के साथ डिग्री मिली, लेकिन एकदम कोरी, काग़ज़ी! ऐसे काग़ज़ों से माँ सरस्वती अपना मुँह छिपातीं हैं, किन्तु बेईमान काग़ज़ से उनका पीड़ित मन झलक ही जाता है। 

  कुछ साल में दोनों बेटियों की शादी हो गई। उनका घर बस गया। माँ की ज़िम्मेदारियाँ पूरी हो गईं। अब लीलावती अकेली हो चलीं थीं। जीवन कैसे कटता? इसके लिए उन्होंने अपना मन भगवान की भक्ति में लगा लिया। गंगा स्नान, चींटियों को पिसान (आटा) और घर पे प्रभु का ध्यान उनकी नई जीवनचर्या बन गई। वो पढ़ीं तो थीं नहीं, इसलिए जब भी धर्म-ग्रंथों को सुनने का मन करता था, तो निर्मला को याद करतीं थीं। निर्मला उन्हीं के ख़ानदान की बहू थी। निर्मला का पति घर ही रहता था, उसकी आमदनी ढेले बराबर भी न थी। निर्मला लीलावती को बेटियों की कमी महसूस नहीं होने देती थी। सुबह लीलावती को गंगा मैया में डुबकी लगवाने जाने में निर्मला को आलस्य तनिक भी न छूता था। चाय, भोजन, कपडे साफ़ करना, सब कुछ निर्मला एक बेटी से बढ़कर कर देती थी। रात में सोने से पहले लीलावती के हाथ-पैर दबाए बिना निर्मला को नींद नहीं आती थी। यह निःस्वार्थ सेवा का सिलसिला बरसों चलता रहा। कभी-कभी रात में सोने से पहले लीलावती के मन को एक संशय छूकर निकल जाता था। वह था-एकाएक निर्मला की बढ़ती क़रीबी। निर्मला दोनों बेटियों को पसंद नहीं करती थी, लेकिन अब उन दोनों के चले जाने के बाद उनकी जगह लेने की कोशिश कर रही थी। फिर आजकल तो बिना मतलब के कोई पैर भी न छूता है, यहाँ तो निर्मला पॉँच सालों से लगातार पाँवों की मालिश किये जा रही थी। यह झटके की क़रीबी आहिस्ते की हलाल भी बन सकती थी। फिर लीलावती के पास कोई बड़ी पूँजी तो थी नहीं, जिसके लोभ वश निर्मला सेवा करती। वे अपनी सारी शंकाओं को दरकिनार करतीं, और चैन की नींद सो जातीं। 

  लीलावती के पास सूचना का अभाव था, उनका अच्छा-ख़ासा नुक़सान करवा रहा था। बाज़ार के ठीक चौराहे वाली दुकान! लीलावती उस बाज़ार वाली दुकान के वर्तमान मूल्य से अनजान थीं। उनको किराया उतना ही मिलता रहा, जितना बीसों बरस पहले मिला करता था। हाँ, बीच में किरायेदार ज़रूर बदले। किराया भी बढ़ा था, लेकिन दो-तीन हाथों से छनकर, किराया अपने मूल रूप में ही लीलावती तक पहुँच पाता। बिचौलियों के हाथों की मेहरबानी से महंगाई की परत झड़ जाती। उनको दुकान का मूल्य वही पुराना वाला ही लगता था। लेकिन लीलावती को सच्चाई से दूर रखा गया था। जब से उस बाज़ार से हाईवे होकर गुजरा था, वह बाजार चाँदनी चौक को टक्कर देने लगी थी। उस चौराहे की दुकान की क़ीमत आसमान छू दी थी। भविष्य में बाजार को ब्लॉक से तहसील बनने की भी सम्भावना थी। इस आसमान छूती दुकान पर निर्मला के पति की नज़र थी। वह निर्मला की सेवा के बदले यह दुकान चाहता था। लेकिन बिना ज़ोर-ज़बरदस्ती के। एकदम गांधीवादी तरीक़े से। भले ही अरसे लगें, पर जब आम की गुठली सोने की हो, तो आम के पकने का इंतज़ार हो ही जाता है। उसको ढेले से चोट कर कच्चा या अधपका तोड़ने में नुक़सान ही होता है। दसों बरस की मेहनत और सेवा धर्म का परिणाम यह था कि निर्मला ने  लीलावती के दिल में स्थाई जगह बना ली। निर्मला उनके दिल का टुकड़ा बन गई। वो निर्मला से अक़्सर कहा करतीं थीं, 

 "तुम अगर पुरुष होती, तो मुझे तुम्हीं मुखाग्नि देती। मगर कोई बात नहीं, तुम मेरे प्राण-पखेरू उड़ने से पहले  तुलसी दल डाल देना। उसी से मेरी मुक्ति बन जाएगी।"

एक दिन निर्मला के पति ने निर्मला से कहा,

"अरे भाग्यवान! बस सेवा ही करोगी या मेवा भी ले आओगी ?"

निर्मला, "देखो जी, आपके कहने पर मैंने माता जी की सेवा उस दुकान के लोभ में शुरु की थी। मैंने कई दफ़ा कहना भी चाहा उनसे, लेकिन उनकी ममता मेरे कण्ठ बाँध देते हैं। "

निर्मला का पति, "अरे तो कौन-सी तुम श्रवण कुमार बनकर सेवा करने गई थी। तुमको तो मक़सद पता ही था न? इतनी मेहनत किस लिए कर रही थी? और ये क्या बेवकूफ़ी है? ममता का कण्ठ बाँधना? बता रहे हैं, तुम भटको मत।" 

निर्मला, घबराई हुई,  "नहीं जी ... आप कह रहे हैं तो आज रात में कह ही डालती हूँ।"

  रात का वक़्त। छत पर चारपाई। खुला आसमान। आसमान में अनंत ...अनंत तारे और एक चन्द्रमा उनकी रखवाली करता हुआ। आसमान में तारों को देखकर लीलावती कहीं खोई हुईं थीं। रोज़ की तरह निर्मला पैरों की मालिश कर रही थी। लेकिन बातों की बाढ़ करने वाली निर्मला के ज़बान पे आज सन्नाटे का सूखा था। एकदम शांति का मतलब होता है, असहज वातावरण, या कोई गंभीर बात। ज़रा हटके होने वाली बात, जिसको कहने में झिझक हो। सन्नाटा हिम्मत जुटा रहा होता है, उस बात को कहने और सुनने की। इस सन्नाटे का इंतज़ार लीलावती ने ही ख़त्म किया, 

"निर्मला, आज बड़ी गुमसुम हो?"

क्या कहें, कैसे कहें, इसी उधेड़बुन में गोते खा रही निर्मला के मुख से एक शब्द ही निकल पाया, 

"दुकान..."

लीलावती, "कल नहीं कुछ ले आना है। इतनी चिंता क्यों करती है मेरी। पता नहीं तुम न होती, तो मैं तो कब की गंगा के घाट पहुँच गई होती।"

"नहीं माँ जी, दरअसल बात ऐसी है कि वो बाज़ार वाली आपकी दुकान है न.... "

बाज़ार वाली दुकान का नाम सुनते ही तारों में डूबी, ऊंघाई ले रही लीलावती खाट पर उठकर बैठ गईं। जेठ की रात में भी उनका शरीर थर्रा गया। मारे घबराहट पसीना आ गया बढ़ गया। 

"क्या हुआ उस दुकान को?"

"माता जी, ये (निर्मला के पति) कह रहे थे कि चाची दुकान दे देतीं....तो उसमें कुछ कारोबार कर लेते।" 



 

इतने में लीलावती के सामने बरसों पहले एक शुभचिंतक की दी गई सीख चलने लगी। गाँव में बड़ा फैलाव होता है। वहाँ हवा चलने पर धूल भी बाद में उड़ती है, पहले लोगों के मन में पल रही मंशा उड़ जाती है, और हर घर के कानों में जमा हो जाती है।बहुत पहले किसी भले बुज़ुर्ग ने लीलावती को इन मंशाओं से आगाह किया था। उसने चेताया कि दुकान पर पड़ोसियों की नज़र है। लीलावती के न रहने पर बेटियों में इतना दम न होगा कि वे उस दुकान का मालिकाना कब्ज़ा ले सकें। कोई भी झगड़ा-फ़साद न हो, इसलिए अपने जीते-जी वह दुकान बेटियों के नाम करने की सलाह भी मिली थी। लीलावती को उनकी बातों को स्वीकार करना सहज न था। लीलावती ने तर्क भी किया। ज़मीन उनकी, दुकान उनकी, जिसको चाहे उसको दें। दूसरों से क्या मतलब? शुभचिंतक ने कहा कि ज़माना जिसकी लाठी उसकी भैस का है। अगर बवाल से बचना है, तो दहेज में यह दुकान ट्रक पे लदवा देना! उनकी सलाह में जो वजन था, उसने लीलावती को सोचने पर मजबूर किया। उन शुभचिंतक के दिये गए इस संदिग्ध मंशे वाले चश्मे को लगाया। चश्मे से लीलावती ने अपने पड़ोसियों के पिछले बर्तावों को दुबारा निहारने का प्रयास किया। उनको संदेह में सच्चाई की सुनगुन लगी। लीलावती ने उस दुकान को अपनी बेटियों के नाम कर दिया। मालिकाना हक़ हस्तांतरण का काम इतनी गुप्तता से हुआ कि किसी को भी भनक न हुई। यहाँ तक कि किरायादारों को भी इस बात की ख़बर न लगी। 

  दुकान अपनी थी, बेटियाँ भी अपनी। तो आख़िर अपनी ही चीज़ को अपनों को देने के पीछे इस गोपनीयता का कारण क्या था? लोकतंत्र है, सब स्वतंत्र हैं, अपनी मर्ज़ी के राजा हैं। उसके उपर बेटा हो या बेटी, सबको को जायदाद में समान हक़ देने की बात करने वाला कानून भी पहरेदारी कर रहा है। लाख स्वायत्तता हो, पर वास्तविकता परिस्थितयों की ग़ुलाम होती है। पास-पड़ोस के मन में एक छुपा हुआ लोभ था, कि कभी-न-कभी दुकान उनको मिल सकती है। इसी आशावश वे लीलावती का सम्मान भी करते, उनकी सेवा के लिए भी तैयार रहते। यह दुकान लीलावती की सामजिक-जीवन बीमा थी। अगर लोगों को पता चल जाता कि लीलावती ने उस 'चांदनी चौक' जैसी दुकान को अपनी बेटियों के नाम कर दिया है, तो लोगों की लालसा पर पानी फिर जाता। लीलावती का बीमा असमय टूट जाता। परिणाम स्वरूप उनका सामाजिक बहिष्कार हो जाता। उनके पास कोई उठता-बैठता नहीं। उनसे कोई मुँह भर बात न करता। सब-के-सब मुँह फुलाए ऐसे घूमते, जैसे लीलावती ने उन लोगों का कुछ छीन लिया हो। इतनी नाराज़गी मोल लेने की हिम्मत लीलावती के बूढ़े हृदय में कहाँ थी। उनको लगा कि जब तक दुकान लिखने वाली बात पे पर्दा है, फ़ालतू फ़जीहत से जान बची है। इस अलग-थलग पड़ने के डर ने उनके मुँह पे ताला लगाए रखा। लेकिन इस ताले को चाभी तो लगानी ही थी। कभी-न-कभी तो उनको इस सच को सामने करना ही था।  

  निर्मला तो बेटी की तरह निःस्वार्थ सेवा में लीन थी। आज के ज़माने में तो लोग साल भर तप करके वरदान माँग लेतें हैं, यहाँ निर्मला दसों बरस से तपी जा रही थी। बिना कुछ माँगे! इसीलिए लीलावती ने हमेशा निर्मला को बेटी की तरह ही देखा। लेकिन अब उसने दुकान का जिक्र कर ही दिया था, तो सच तो बेटी को बताना ही पड़ता। उन्होंने सारी बातें निर्मला को एक बेटी के नाते बता डालीं। उनके मन का भी बोझ उतर गया। यह सुनने ही निर्मला के हाथों का बल जैसे किसी ने छीन लिया हो। कसकर पाँव दबाने वाले हाथ निर्जीव-से हो चले। बिना कुछ बोले निर्मला अपने घर चली गई। उसके बाद निर्मला कभी लीलावती के घर झाँकने तक न आई। गाँव में भी दुकान वाली बात  फैल गई। दुकान जब बेटियों के नाम हो गई थी, तो जब वे चाहतीं, उसको बेच सकतीं थीं। गाँव वालों के पास हाथ मलने के अलावा कोई और रास्ता न था। लेकिन फिर वही हुआ, जिसका लीलावती को डर था। अब गाँव के लोग मुँह चमकाते हुए चलते। तानों की तो बौछार करते। इन सबने लीलावती को बहुत व्यथित किया। उनको विश्वास हो गया कि उन्होंने कोई गलत काम कर दिया, जिससे उनकी यह दुर्दशा हो रही है। 

 समय बीतता गया। लोगों को कुछ नहीं तो कुछ करना ही था।  

'इनका बेड़ा तो इनकी बेटियॉं ही पार लगाएँगी।'

'बड़ी चालक निकलीं दोनों।' 

'लीलावती के प्राण बड़े कष्ट से निकलेंगे, इतना बड़ा पाप जो कर दिया।'

'अंत समय में इनके मुख में तुलसी-दल और गंगा जल डालने वाला भी न मिलेगा।'

'इनको कंधा भी कोई न देगा।'

'अपनी चिता के लिए लकड़ी जुटा लेना।'

 सामाजिक छुआछूत के बीच इस तरह की बातें लीलावती के बूढ़े कानों से टकराती रहीं। कानों को कपकपाती रहीं। स्वास्थ्य जब अधिक ख़राब रहने लगा, तो उनकी बेटियाँ भी सेवा में कमी नहीं कीं। अपने पास बुला लीं। बेटियों के यहाँ लीलावती को कोई कमी नहीं थी। जैसे घर जमाई बनना ठीक नहीं होता, ठीक वैसे ही बेटी के घर में बुढ़ापा काटना भी रास नहीं आता है। कितना हूँ सुख-सुविधा मिले, लेकिन वो अपना नहीं होता। उस घर से लगाव किराये वाले घर से अधिक नहीं हो सकता। बेटी के घर में वो चीटियाँ नहीं थीं, जिनको पिसान खिलाकर वे अपनी गति बना सकें। वो मंदिर नहीं थे। उन मंदिरों में वे देवता नहीं थे, जिनसे लीलावती अपने मन की कह सकें। वे बाग़ नहीं थे, जिनकी हवा अपनेपन का एहसास करातीं। वो गंगा माँ नहीं थीं, जिनकी गोद में रोज़ सुबह बैठकर लीलावती को सुकून मिलता था। जीवन है, तो जाना भी है। बस जाते वक़्त उनको यह था कि उनके प्राण उसी दर पर निकले, जहाँ उनके पति ने अंतिम साँस ली थी। उनको गंगा के घाट पर ही पंच तत्त्व में विलीन हों। घाट की वो अंतिम दर उनके पति की हो, जहाँ पर वे अग्नि की गोद में सोए थे। उनको जीवन तो पति से अलग जीना पड़ा, बस मरने के बाद पति के स्थान पर होना चाहतीं थीं।   

  बेटियों के लाख मनाने पर भी लीलावती नहीं मानीं। आधे मन की माँ को वे अपने घर कितने दिन रोककर रखतीं? बेटियों ने माँ को गाँव भेजवा दिया। माँ को कोई कष्ट न हो, एक काम करने वाली भी लगा दी। वो काम के साथ-साथ देखभाल भी करती थी। लीलावती के घर में काम करके काम वाली ने गाँव वालों से दुश्मनी मोल ली थी। वो इस दुश्मनी को अधिक दिन तक नहीं झेल सकी और लीलावती के घर जाना बंद कर दी। अब लीलावती समय और भाग्य के हवाले हो चलीं। आते-जाते लोगों से हाथ जोड़तीं और मिन्नतें करतीं, 

"कुटी के बाबा जी कहते हैं,  प्राण निकलने से पहले तुलसी दल मुख में जाने से मोक्ष मिलता है, अंत समय में मेरे मुँह में डाल देना।" 
तो किसी से वे कहतीं,
"मैंने लकड़ियाँ जुटा रखी हैं, मरने पर घाट पहुँचा देना। मेरी चिता जला देना।"

   इन सबके बीच उनको निर्मला की भी याद आती। निर्मला की आख़िर क्या मजबूरी थी कि वो बग़ल वाले आँगन में रहते हुए भी कभी झाँकने तक न आई। घर इतना क़रीब था कि लीलावती अगर एक बार आवाज़ लगा दें, तो निर्मला दौड़ी चली आती। उसके ऐसे नाता तोड़ने ने लीलावती को गहरा घाव दिया था। पराये दिल में ऐसी जगह बना जाते हैं, जो अपने लोग नहीं बना पाते। निर्मला उन परायों में से ऐसी एक थी। अब लीलावती की तबियत पहले से और बिगड़ लग गई। दोनों बेटियाँ बारी-बारी उनकी आ आकर देखभाल कर जातीं।  लेकिन उनका भी अपना घर बस चुका था। उनको बहू, पत्नी, माँ, भाभी इत्यादि क़िरदारों को बेटी वाले से अधिक वरीयता देनी पड़ जाती। नतीजा यह होता कि अक़्सर दोनों माँ के बग़ल में बैठ न पातीं। एक जाती, उसके एक-दो दिन बाद दूसरी आती। इस बीच के वक़्त लीलावती भगवान से प्रार्थना करतीं कि यमदूतों को छुट्टी पर भेज दें। बेटियों के न रहने पर तुलसी दल कौन डालेगा? इस जनम ने उनका पेट भर दिया था। दोबारा इस धरती पे वे जन्मना नहीं चाहतीं थीं। मुख में तुलसी दल उनकी अंतिम इच्छा बन गई। बेटियों के न रहने पर वे तुलसी दल और गंगाजल को अपने सिरहाने रखे रहतीं थी। ज़रा-सी हिचकी, मुँह में तुलसी दल! 

    एक दिन शाम को लीलावती अकेली थीं। उनकी तबियत ठीक नहीं लग रही थी। अंदर से आभास हो रहा था कि अब वक़्त आ गया है। अचानक लीलावती 'निर्मला, निर्मला चिल्लाने लगीं। अंत समय में लोग राम नाम लेने से सद्गति मानते हैं, मगर सबको राम से प्रेम इतना सच्चा नहीं होता कि ‘राम’ उच्चरित हो सके। एक और सत्य बात है, कष्ट में सबसे प्रिय का ही नाम ज़बान पे आता है, जैसे-माँ। लीलावती की थर्राती जिह्वा से निर्मला का नाम पुकारा जा रहा था। यह दोनों के प्रेम का परिचारक था। या शायद यमदूतों के भय से लीलावती निर्मला को गुहार लगा रहीं थीं। यह रुदन भरी आवाज़ निर्मला तक पहुँची।  बेचारी, बेबस अपने कलेजे पर पत्थर रख सुनती रही। उसको उसके पति ने लीलावती के घर की चौखट न लाँघने की क़सम खिलाई थी। इसी क़सम से बँधकर निर्मला अपनी मुँहबोली माँ के हाल-चाल तक न पूछ पाती। आदमी अगर एक जानवर भी घर ले आए, तो उसके साथ सहानुभूति बन जाती है। दोनों के दिलो-दिमाग में एक दूसरे के लिए रास्ते बन ही जाते हैं। फिर यहाँ तो निर्मला ने माँ बोलकर दसों बरस लीलावती के साथ गुज़ारे थे। भले ही सेवा की शुरुआत लालच के बीज से हई थी, मगर यह बीज जब पेड़ बना, तो फल दाग़दार नहीं थे। माँ से निर्मल प्रेम ने निर्मला के मन में दुकान की लालच रत्ती भर न छोड़ी। लेकिन दुकान जब हाथ से निकल गई, तो निर्मला के पति ने लीलावती के घर जाने से सख़्त मना कर दिया। अब कौन औरत अपने पति की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ जाती?

  उस वक़्त घर में निर्मला के पति नहीं थे, लेकिन दी गई क़सम थी। और थी उस क़सम को कमज़ोर करती निर्मला की अन्तर्रात्मा। कसम तोड़कर वह अपने पति का मरा हुआ मुँह देखे, या फिर माँ को दिया गया वचन निभाए। वचन-अंत में तुलसी दल डालने का था। मोक्ष का कोई मोल नहीं होता। निर्मला का दिमाग़ काम करना बंद कर दिया। वह उठती, अपनी घर के चौख़ट तक जाती, फिर अपने पति का सोचकर कदम आगे न बढ़ा पाती। उधर से निर्मला का पति भी आ गया। वह लीलावती की चीखें सुन पा रहा था, और उन चीखों का निर्मला पे पड़ता हुआ असर भी देख पा रहा था। लेकिन वह इशारा करता-लीलावती के पास जाना नहीं है। निर्मला के मन में जाने और न जाने की दौड़ में जाने का मन प्रबल बन चला था। वह एक वाक्य बोली,

"कम-से-कम मरते वक़्त तो अपने पापों को धो लिजिए"

इतना बोलकर निर्मला एकदम कठोरता के साथ एक के बाद एक दो चौखटें लाँघ गई, एक अपनी और दूसरी लीलावती की। घर में खाट पर लीलावती पड़ीं थीं। उनके हाथ बेजान हो चले थे। अब-तब वाली बात थी। लीलावती ने अपने सिरहाने रखे कमण्डल की ओर निर्मला को इशारा किया। निर्मला ने कमण्डल में से एक पत्ता तुलसी का और गंगा जल की दो बूँदें माँ के  मुख में डाल दीं। जैसे लीलावती को निर्मला का ही इंतज़ार हो, या फिर उस तुलसी दल का, या दोनों का। चिल्लाना चुप हो गया। लीलावती की जीवन लीला शांत हो गई। निर्मला के आँखों में झर-झर आँसू। तभी पीछे से निर्मला का पति भी दौड़ा आया। उसको भी अपने पापों को धोने का यह अंतिम मौक़ा था। लेकिन वह कुछ पलों से चूक गया था। उसके मन में जीवन भर लालच में लिप्त रहने का बोझ था। उसने लीलावती की अंतिम यात्रा ख़ूब परंपरागत तरीक़े से की। मुखाग्नि भी दी।  उसने वे सारे काम किये, जो एक पुत्र अपनी माँ की मुक्ति के लिए कर सकता था। यह सब करके उसके मन को हल्का महसूस हुआ। निर्मला जीते जी लीलावती की बेटी थी, तो निर्मला का पति लीलावती के मरने के बाद लीलावती का बेटा बना।

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टिप्पणियाँ

  1. बहुत अच्छी कहानी है। एक सांस में पढ़ गए। विभिन्न भावों की यात्रा कराती यह रचना बहुत ही अद्भुत है!

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    1. अजित भाई, धन्यवाद। ‘एक साँस में पढ़ना’ बेहद पसंद आया।

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  2. "अत्यंत मार्मिक" एवं "प्रेरणादायक" कृति।
    आज के स्वार्थ-गामी समाज को दर्पण दिखाती यह कहानी हमे सिखाती है कि हमको क्षड़िक स्वार्थ को छोड़, परमार्थ में विश्वास रखना चाहिए।
    कवि के लेखनशैली की प्रशंसा के लिए शब्दों का चयन भी बड़ा कठिन है।

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    1. आदरणीय आशुतोष सर, आपने तो पूरी कहानी पकड़ ली।धन्यवाद सर🙏🏽।

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  3. Apki kahaniyon k zariye bahut si nayi chize sikhne ko milti he....Vakai me Tulsi dal ka mahatva is point pe mujhe pata nahi tha...Ab log is comment ko padhenge to zarur kahenge ki pata nahi ye kaun he jise ye generic bat bhi nahi pata he....Mere liye hi nahi balki mere jaise hi Kai log honge jo apne sanskar bhumi me na rehne ka avsar milne pe is sikh se vanchit rahe he to Zahir si bat he ki kaha se pata rehta...Thanks to u Naveen for sharing such stories which in deed nurtures us wid such great knowledge and understanding our culture better...

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  4. आदरणीया रितु जी, आपकी टिप्पणी से मैं अभिभूत हूँ, और मेरे लिखने का लक्ष्य प्राप्त हुआ। आभार।

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  5. बहुत खूब नवीन भैया। लीलावती का अंतरद्वन्द और चरित्र दोनों बहुत सुन्दर चित्रित किया और कहानी का अंत भी सुन्दर था।

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  6. कमाल की कहानी लिखी है नवीन। अंतरात्मा को छू गई। इस युग के मुंशी प्रेमचंद हो तुम।

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  7. प्रणाम सर!
    बहुत-बहुत धन्यवाद सर। प्रेमचंद वाली बात बहुत बड़ी अतिशयोक्ति है।

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  8. Mujhe Bachpan me prem chand ki kahani bahut pasand thi aur budhape me naveen Singh ki pasand hogi.aisa mujhe ab lag raha hai.
    1 word hai nirmala ke pati ki income nil thi agar iski jagah aap likhte uski income dhele barabar bhi na thi shayad jyada sahi rahta .
    Just my opinion

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  9. भैया प्रणाम, आपकी टिप्पणी बहुत ही जोश भरने का काम की है। ढेले वाला शब्द गाँव के लिए बहुत ही सटीक है। सुझाने के लिए धन्यवाद। मैं इस्तेमाल करता हूँ।

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  10. यह कहानी समाज के वर्तमान और भविष्य दोनों को इंगित करती है। आज का समय बिल्कुल ही इस कहानी जैसा ही है कोई भी इस समाज में निर्मला जैसा निस्वार्थी नहीं बनना चाहता है अपितु उसके पति जैसा स्वार्थी होना चाहता है। नवीन ने इस कहानी के माध्यम से वर्तमान समय में चल रही सामाजिक कुरीति को उघाड़ने का सफलतम प्रयास किया है जोकि अत्यंत ही सराहनीय है। उम्मीद करता हूं कि आने वाले समय में आप अपनी कहानी के माध्यम से समाज को एक नया रास्ता दिखाएंगे जो कि निस्वार्थ की भावना से ओतप्रोत हो। धन्यवाद।

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