ज़माना पल-पल बदल रहा है। इस बदलते ज़माने की रफ़्तार को पकड़ने की आदमी भरपूर कोशिश कर रहा है । बदलाव ज़रूरी भी है। मगर तभी तक, जब तक कि सकारात्मक हो । मेरी जबसे समझने-बूझने की उम्र हुई, गाँव के एक परिवार से मैं हमेशा प्रेरित होता रहा। मैंने कभी उनको देखा नहीं, लेकिन उस परिवार के स्वर्गीय श्री मोतीचंद सिंह की उदारता, कर्मठता और उद्यमशीलता की कहानियाँ सुनते हुए बड़ा हुआ (उम्र में)। आज यदि किसी के पास धन है, तो वो अपना दायरा सीमित करना चाहता है, ताकि किसी को देना न पड़ जाए। आप महापुरुष ने स्वयं को तो सीमित किया लेकिन आस-पास के लोगों, सगे-सम्बन्धियों के लिए अपना हृदय विशाल समुंदर कर दिया । आपके हवेलीनुमा घर जैसा गाँव में तो क्या, पूरे क्षेत्र में आज भी वैसा घर नहीं बन पाया। घर की बालू-सरिया-ईंट भले ही पैसे से आती होगी , परन्तु ये घर को शरीर मात्र दे सकते हैं। घर बनाने में हुए परिश्रम, तप, परित्याग और समर्पण उसको प्राण देते हैं। ये सब घर की आत्मा होते हैं। प्राण बिना शरीर का अस्तित्व कहाँ! घर को बनाने में हुई परिकल्पना सदा उस घर में वास करती है। जैसे स्वार्थ की परिकल्पना में बनाया हुआ घर कभी...
अगर आपके सपने सच्चे हैं तो पलक से फ़लक पे उतर ही आएँगे। सपने की सच्चाई उसकी उदारता पर निर्भर करती है। स्वार्थी सपने मिथक होते हैं, माया में लिपटे होते हैं। वे मृग-मरीचिका की भाँति लुभाते हैं, पर कभी साकार नहीं होते। इनका आजीवन पीछा करने पर भी अंत में निराशा और असंतोष ही हाथ लगता है। तो क्यों नहीं अपने सपनों में औरों को सजाया जाए! क्यों नहीं किसी के नन्हें ख़्वाबों को पंख दिये जाएँ! क्यों न ऐसा हो कि दूसरे के सपने साकार करना ही अपना सपना बन जाए! अगर ऐसा होने लगे तो सिकुड़ती धरती शायद अपने आकार को बचा सके। यह उदारता चंद लोगों को नसीब होती है। काश उन नसीबों में मेरा भी एक होता! -काशी की क़लम
जीवन कैसे जिया जाये? जलता जैसे दीया जाये। उम्र घट रही है पल-पल, ख़र्च हो रहे हैं मुसलसल*। दीये में बचा जितना तेल है, उतने भर ही जीवन खेल है। तेल का कितना भण्डार है? नहीं पता, तले अंधकार है। अहम-प्याला नहीं पिया जाए! तेल भर उजाला किया जाए। -काशी की क़लम मुसलसल* : लगातार
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