लाखों साल पहले धरती का जन्म हुआ। उसपे जीवन जन्मा। उन जीवों में से एक था मनुष्य। मनुष्य ने अपनी बुद्धिमत्ता से वातावरण से अनुकूलन स्थापित किया। कभी जानवरों की तरह रहने वाले मनुष्य ने समाज नामक संस्थान की खोज की। साथ रहकर उसने अपनी सुरक्षा बढ़ाई और एक साथ मिलकर बाधाओं को पटखनी दी। दुसरे जीव समाज की शक्ति को आत्मसात नहीं कर सके। समाज, संगठन, एकजुटता ने मानव की जीवित रहने की क्षमता को बढ़ाया। समाज का गठन संवेदना की नींव पर हुआ। संवेदना एक जीव के द्वारा अनुभव किये जा रहे भाव का दूसरे जीव पर होने वाला असर है। दुसरे पर यह असर जितना अधिक होता है, वह उतना ही अधिक संवेदनशील होता है। इसी संवेदना की शक्ति की बदौलत मानव अन्य प्राणियों को पछाड़ते धरती पर अपना एकछत्र आधिपत्य स्थापित किया। डार्विन ने योग्यतम की उत्तरजीविता का सिद्धांत बाद में दिया। मनुष्य इसका प्रयोग पहले से ही करता आ रहा है। हज़ारों बरस पहले से ही मानव ने अपने आपको लगातार निखारा है। निखार के इस क्रम में मानव ने अपने आपको उस शिखर पर पहुँचा दिया, जहाँ वो अपने जीवित रहने के लिए पूर्णतया आत्मनिर्भर हो चुका है। 'पूर्णतया' कहने मे
फलते-फूलते शहर का वह मन्दिर। उस मन्दिर में कोई लक्ष्मी जी की मूर्ति नहीं थी, परन्तु उसमें लक्ष्मी का जैसे साक्षात वास था। किसी धार्मिक स्थल की संपन्नता उसके आस-पास बसे लोगों की धनाढ्यता पर निर्भर करता है। इससे अधिक उन लोगों की उदारता मायने रखती है। आए दिन मन्दिर में सोने-चाँदी के चढ़ावे चढ़ते थे। मन्दिर में माथा टेकने की जगह से अधिक हुण्डियाँ ( दानपात्र) विराजमान थीं। आदमी अगर दो-चार हुण्डियों को अनदेखा कर भी दे, बिना इनमें कुछ दान किए मन्दिर की चौखट पार नहीं कर सकता था। जैसे हुण्डियाँ बोल रही हों कि अब बहुत अनदेखी कर लिये, प्रभु सब-कुछ देख रहे हैं। इस आध्यात्मिक अपराध बोध की अनदेखी भला कोई कैसे कर सकता था! ईश्वर लोगों की मन्नतें पूरी करते और लोग मन्दिर की हुण्डी स्वेच्छा से भरते जाते। मन्दिर संस्कृति का भी केन्द्र था। समय-समय पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन करवाता था। इन कार्यक्रमों के टिकट लगते थे। इन आयोजनों से मन्दिर के खज़ाने में रातों-रात बढ़ोत्तरी होती थी। आते-जाते लोग हुण्डी में अपनी श्रद्धा से जो दान देते, वो तो अलग से बोनस! मन्दिर में जगह-जगह दान करने की विभिन्न विधियों क
विज्ञान और कला। मैं उस जगह से आता हूँ, जहाँ कला के छात्र को मंद बुद्धि और न जाने कौन-कौन-से तमगों से विभूषित किया जाता था। पढ़ाई में कम रुचि रखने वाले लोग by default कला के विषय ले लेते थे। लेकिन जब मेधावी लोग कला की ओर रुख़ करते थे, उनकी बौद्धिक क्षमता पे भी सवालिया निशान लगते थे। ये निशान दुखद थे। क्योंकि इतिहास, भूगोल, भाषा, संगीत, चित्रकारी, इत्यादि दिमाग़ से अधिक हृदय से होता है। समय के साथ कला का यह चित्र सुधरा है, लेकिन हवा द्वारा पत्त्थर पे की जा रही नक़्क़ाशी की रफ़्तार से! कला वाले को हमेशा अपनी क़ाबिलियत समाज को साबित करनी पड़ती है। कतिपय अपवाद हो सकते हैं, पर कला की साधना अभी भी बहुतेरे समाजों में एक बौद्धिक कलंक है। यदि विज्ञान की प्रगति के सापेक्ष कला की प्रगति की बात करें, तो कला बहुत पीछे छूट गई है। जहाँ विज्ञान ने चाँद को छू लिया है, वहीं कला मिश्र की सभ्यता की तरह अपने अस्तित्व और अस्मिता की लड़ाई लड़ रही है। आख़िर कला से दुराव के क्या कारण हैं? सबसे पहले जीवन यापन के मूलभूत साधनों को जुटाने की बात आती है। भूखे के पास न तो स्वाद के लिए जिह्वा होती है और न ही अभिव्यक्
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