शिक्षक केंद्रित समाज: क्यों और कैसे; संतुष्ट-सम्मानित शिक्षक की आधारशिला मज़बूत देश की आवश्यकता।

 नमस्ते, 

आज बात करते हैं- गुरु, जो ब्रह्म हैं, नहीं-नहीं, उनसे भी ऊपर हैं; ब्रम्हाण्ड में उनकी स्थिति की, और कैसे छात्र उस स्थिति को और बेहतर बना सकते हैं।

आकर्षण का अकारण सपने में बस जाना:

बात बहुत छोटी-सी, आम व सरल है। दो बातें: जिस चीज़ को प्रोत्साहन मिलता है, वह अपने-आप निखरती जाती है; जिस चीज़ से लोग आकर्षित होते हैं, लोगों के सपनों में आने लगती है। अब चाहे गणित से दूर भागते बच्चे को उसकी छोटी-सी अंकीय उपलब्धि पर पीठ थपथपाना हो, या फिर नीली बत्ती को देखकर लोगों की मुण्डी का घूम जाना हो, या फिर असलाहों से घिरे मंत्री जी का काफ़िला हो, जिससे भी लोग प्रोत्साहित-आकर्षित होते हों, वह बहुत सारे लोगों के सपने में आने लगती है। यह आकर्षण सकारात्मक है या नकारात्मक, इस लेख की विषयवस्तु में नहीं है। कभी मेरे दोस्त ने बताया कि मुझे IAS अधिकारी बनना है। मैंने पूछा क्यों ? अनेक कारणों में से एक महत्वपूर्ण था -नीली बत्ती। खेल जगत की बात करें, उदाहरणों का मैदान खचाखच भरा है। ध्यानचंद की हॉकी को ही ले लीजिए। अब कुछ लोगों के जूनून को दरकिनार कर दें, तो अब कोई हॉकी खिलाड़ी नहीं बनना चाहता। कबड्डी ने दुबारा साँस भरनी शुरु की है; आभार- संस्कृति-जागरण का। बैडमिंटन-टेनिस-शतरंज इत्यादि के नाम कुछ चंद खिलाडियों से ही चलते हैं, जो ख़ुद के संघर्ष से इन खेलों को साँस भरे पड़े हैं। थोड़ी बात चहेते खेल क्रिकेट की। यहाँ पर भी पानी पिलाने से लेकर छक्के छुड़ाने वालों तक की श्रेणी है। भारत धुरंधर बल्लेबाजों के लिए मशहूर रहा है, लेकिन जब बात तेज़ गेंदबाज़ी की आती है, तो अक़्सर कंधे सरक जाते हैं। तब हम रूख़ करते हैं अपने पड़ोसी देश की ओर। रावलपिंडी एक्सप्रेस को एक गेंद फेकने के लिए की जाने वाली मेहनत को देखकर भारत का कोई भी पनपता हुआ क्रिकेटर शायद ही ‘ब्लू कॉलर’ (लेबर) बनना चाहेगा। पाकिस्तान में रफ़्तार को तवज्जो मिलती है, जिसकी खाद वहाँ की ज़मीं से तूफ़ानी गेंदबाज़ उपजाती है। आईपीएल के आने से अब क्रिकेट बॉलीवुड के हाथों में भी आज़माया जा रहा है। चमचमाती हुई फ़्लैश-लाइट्स के बीच बल्लेबाज़ी का सुरूर और चढ़ेगा, गेंदबाज़ पिटते जाएँगे। मतलब- आकर्षण की वस्तु अकारण ही सपने में दीख पड़ती है।

गुरु ब्रह्म से भी ऊपर, वाक़ई?

ऊपर की बात को ज़रा शिक्षा में ले चलें। हमारे समाज में गुरु की महिमा इतनी, जितनी भगवान की भी नहीं। यह तो रही सैद्धांतिक प्रस्तावना। मगर इसका ज़मीनी अनुपालन कितना किया जाता है? आजकल की शिक्षा की बात करें, तो दो पैसे कमाने वाला अपने बच्चे को सरकारी स्कूलों में धूल खाने नहीं भेजना चाहता। अंग्रेज़ी माध्यम के विद्यालय ही सबकी पहली चाहत होती है। और बहुचाहित अंग्रेज़ी स्कूल के शिक्षकों की हालत...! किसी साहूकार के यहाँ बंधुआ मजदूरी से यदि अधिक हो, तो इसे अपवाद ही माना जाएगा। अब ऐसे शिक्षक, जो समाज के एक बड़े और प्रभावशाली हिस्से को दिशा दे रहे हैं, अपने घायल स्वाभिमान को छिपाकर बच्चे का आत्मविश्वास कितना बढ़ा पाएँगे? उनको कैसे ठोकर मारकर मज़बूत, सुन्दर, सुडौल घड़ा बना पाएँगे? ज़रूर मन मारकर ही पढ़ाते होंगे। अपनी कुर्सी बचाते हुए। उनको इस बात की भी दग-दग रहती होगी कि कोई बड़े घर का बच्चा उनकी क्लास न लगवा दे। कोई शिक्षक अगर किसी प्राइवेट विद्यालय में पढ़ा रहे हैं, तो यह बात तो तय है कि उनकी पहली पसंद-सरकारी नौकरी, ने नज़र न फ़ेरी, इसीलिए मजबूरी को भाग्य मानकर मन मारे हुए हैं। इन्हीं सब कारणों की देन है कि कोई सपने में भी कोई शिक्षक नहीं बनाना चाहता, वो भी निजी विद्यालयों के। कृपया अपवाद भी ध्यान रखें। 

शिक्षक सेंटर्ड समाज

किसी के काम को तवज्ज़ो देने का सबसे बड़ा मानक होता है-वेतन। जिस काम का जितना बड़ा परिणाम, जितना अधिक प्रभाव, उतना ही समानुपातिक भुगतान। शिक्षकों की बात करें, तो उनके परिश्रम इन प्रत्यक्ष परिणामों की अपेक्षाओं की बलि चढ़ जाते हैं। गुरु जी लोगों का काम सतत और अप्रत्यक्ष होता है। यहाँ इस परिणाम को प्रमाणित करना भी संभव नहीं है-असल में कोई सफ़लता गुरु जी की ही देन है। क्योंकि जब सफ़लता की क्रेडिट का चरणामृत बँटता है, तो बच्चे की मेधा, परिवार की परवरिश इत्यादि पहले हक़दार होते हैं। गुरु जी के हाथों पर उतना ही चरणामृत पहुँच पाता है, जिससे हाथ बड़ी मुश्क़िल से गीला हो पाता है। यहाँ तक बात रही विद्यालयों के शिक्षकों की, वेतन निर्धारित करने वाले सत्ताधीशों और निजी पाठशालाधीशों के नज़रिये की। उम्मीद है, परिस्थितियाँ बदलेंगी। अब इसी परिणाम वाले बटखरे को प्रतियोगी परीक्षाओं की कोचिंग मंडी में उतारिए। गुरु कृत प्रत्यक्ष परिणाम कमाल, गुरु जी भी मालामाल

दीवाली पर वेतन से अधिक एक डिब्बा मिठाई ख़ुशी देती है; तय दहेज़ के ऊपर क्या मिलता है, आगे के संबंधों का रुख़ तय करता है। छात्र के वश में वेतन या अन्य नीतिगत बदलाव नहीं है। लेकिन जो वश में है, वह कर सकते हैं। पहचान-क्रेडिट देकर भी शिक्षक की सामाजिक महत्ता को ज़मीनी और वास्तविक तौर पर सुधारा जा सकता है। यह बात मन रखने वाली नहीं, औपचारिकतावश भी नहीं, बल्कि समाज का गुरु को पे बैक (Pay Back) जैसी होनी चाहिए। अगर ऐसा होता रहा, तो यह रास्ता सत्ताधीशों तक भी एक-न-एक दिन अवश्य पहुँचेगा, क्योंकि छात्र ही समाज हैं, और समाज ही सत्ता।

हाल ही में एक चिकित्सक ने अपने शिक्षक श्री अरविंद सिंह जी, प्रवक्ता, भौतिक विज्ञान, उदय प्रताप इंटर कॉलेज, वाराणसी के हाथों से अपने हस्पताल का लोकार्पण करवाया। उनका यह कृत्य आम प्रचलन से एकदम अलग व पे बैक (Pay Back) के भाव से ओत-प्रोत है। देखिए उनकी प्रेरणा,

मैं अपने संघर्ष के समय को नहीं भूलता, उस समय गुरु जी ने ही मुझे कुछ बनने के संसाधन, हिम्मत और प्रेरणा दी। आज मुझे बहुत सारे सांसद-विधायक जी लोग जानते हैं, लेकिन गुरु जी तब से मेरे साथ खड़े हैं, जब मैं कुछ नहीं था। अपने मूल को नहीं भूला हूँ।
-डॉ. दिलीप सिंह, दंत रोग विशेषज्ञ

उनका यह कदम समाज में शिक्षक के स्थान को वास्तविकता का अमली जामा पहनाते हुए दिख रहा है। काशी की कलम की ओर से इस नेक पहल के लिए हम उनका स्वागत करते हैं, आभार देते हैं। साथ ही आशा करते हैं कि वे दूसरे लोगों के लिए प्रेरणा स्त्रोत बनेंगे।

शिक्षक केंद्रित समाज ही चतुर्दिक विकास कर सकता है। उसके लिए ज़रूरी है- समाज शिक्षक की कुर्सी को प्रोत्साहित करे, ताकि यह कुर्सी भी सपनों में बसे।

सादर प्रणाम🙏🏽,

नवीन सिंह


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