कहानियों का मानसूनी सफ़र

सादर प्रणाम,

    कल एक सप्ताह चलने वाली प्रतिलिपि की मानसून फ़ेस्टिवल प्रतियोगिता की पूर्णाहुति हो गई। मैंने भी पुरज़ोर प्रयास किया, कुछ कहने का। सरस्वती माँ की कृपा से मैं अपने प्रयासों में सफल रहा। इस सफलता का मापदंड प्रतियोगिता में स्थान पाना नहीं है। यह प्रतियोगिता तो मेरे लिए एक बहाना है, एक लालच है। कहानियों को बटोरने का लालच। समय के बंधन में कुछ अनकहा-सा कह जाने का लालच। सामान्य तौर पर किसी विषय का विचार आने और कहानी लिखी जाने तक कम-से-कम २ सप्ताह तो लगते ही हैं। इसलिए अपने आपको समय की चुनौती देने का यह फ़ेस्टिवल एक अच्छा अच्छा अवसर देता है। पिछली बार वाले हॉरर फ़ेस्टिवल में आत्मबोध हुआ कि कहानियाँ केवल पेड़ के नीचे बैठकर ही नहीं, बल्कि बच्चों के शोर-शराबों के बीच भी लिखी जा सकती हैं; कुछ कहने के लिए संकल्प कृत होना सबसे  ज़रूरी है। 

  पहली वाली पिक्चर को जब मैंने देखा, ‘बरसात की एक रात’, अगले दिन १२ बजने में मात्र १.५ घंटे का समय बाक़ी था। बारिश से मेरे दिमाग़ में पकौड़ी आई, लेकिन रामदीन की ‘चाय-पकौड़ी की आस’ अधूरी रह गई। ट्रैजेडी लिख कर मन को दुःख भी हुआ, लेकिन मेरा कहने का प्रयास था- बहुत लोगों की छोटी-छोटी चाहतें भी नहीं पूरी हो पातीं हैं।

  ‘पल-दो पल अपने भी’ (भीगी-भागी लड़की): ७० साल के माता-पिता के माध्यम से हर माता-पिता को एक संदेश देने का प्रयास है-बच्चों की देखभाल में अपना जीवन भी थोड़ा बहुत जी लीजिए। माता-पिता वो कोई काग़ज़ हैं, जो स्वयं को मिटाकर अपने ऊपर कहानी-उपन्यासों को जन्म देते हैं। बहुत सारी कृतियाँ पन्ने को धन्य कर जाती हैं, लेकिन कुछ-एक में लेखक को मलाल रह जाता है। यही मलाल मायूसी में न बदले, इसलिए अपना जीवन भी जिएँ।

क़श्ती के कश्तिकार (काग़ज़ की क़श्ती): हिंदू-मुस्लिम समाज सिखाता है, यह बात इस कहानी में एक दुर्घटना की वज़ह से बचपन में बिछड़े दो दोस्तों के माध्यम से कहने का प्रयास हुआ है। साथ ही मैंने अपने अज़ीज़ दोस्तों के नाम भी इसमें प्रयोग किए: रितेश और अशरफ़। यह अपने मन की करने की स्वतंत्रता मेरी लेखन में रूचि बढ़ाती है।

३ दिन और तीन कहानियाँ लिखा गईं। कहीं कोई स्थान नहीं था, और ‘शादी का सावन’ मुझे चिढ़ा रहा था। एक कहानी बन रही थी, किंतु मन पूरा नहीं बन रहा था। सफलता नहीं मिलने से थोड़ा मलाल भी था; भले ही मेरा उद्देश्य प्रतियोगिता में स्थान पाना नहीं है, लेकिन इन विषयों को क्या मैं सही तरीक़े से कह पा रहा हूँ, इसका आत्ममंथन शुरू हो गया था। या तो वो विषय अच्छे न रहे हों, या फिर मेरे लेखन में कमी रही हो।मुझे अपने लेखन में कमी लगी। उस दिन का विषय मुझे चुनौती दे रहा था। उसी  चुनौती ने ‘सावन में समीर-लीला’ को जन्म दिया।

पगली को वो नाला: मर रही मानवता का जीवंत प्रमाण रही। पागल कौन है, इस कहानी ने उजागर किया।

किसान की बारिश: सीधा प्रसारण- मैं किसान का बेटा ही नहीं, ख़ुद किसान हूँ। एक कहानी किसान के मर्म को समेट नहीं सकती।मैंने इस मायूस विषय को थोड़े हल्के से कहने का सफल प्रयास किया। घुरहू चाचा ने बहुत सारी बातें हल्के में ही कह दीं, लेकिन मैं उनको लिखने में हाँफ गया।

विजयी भारत की फ़ुट्बॉल टीम: इसमें भारत कैसे बँटा हुआ है, और उसकी शुरुआत कहाँ से होती है, विद्यालय पर इसे कैसे ठीक किया जा सकता है, के बारे में लिखा गया है।

इन सब कहानियों में कुछ ने प्रतिलिपि के सम्पादकों के हृदय में जगह बनाईं, और कुछ उनके घरों में घर कर गईं।  यह मानसून सात सार्थक कहानियाँ दे गय, जिनमें ‘पल-दो पल अपने भी’ मेरी पसंदीदा रही।

ये सब मैं सिर्फ़ अपनी यादगार के लिए लिख रहा हूँ, क्योंकि लिखा हुआ अधिक दिन चलता है। 

अपनी लिखी कहानी दुबारा पढ़ते समय कमियाँ निकालना बड़ा ही कठिन था। ऐसे में अपने mentor, भैया अजय सिंह को नमन, जिन्होंने इन कमियों को ठीक किया। 

समय था,  तभी ये कहानियाँ लिखा पाईं। मेरी पत्नी, गीता का बहुत बड़ा योगदान हैं इन सप्तकथाओं को साकार करने में। कुछ विषयों पर दिमाग़ में २-३ विषय आए, और जिनकी रूप-रेखाओं को उन्होंने धीरज से सुना, और उनकी पसंदीदा कहानी को लिखने में मुझे भी बेहद ख़ुशी मिली।

आप सभी पाठकों को मेरा हृदय से आभार। प्रतिलिपि की टीम को इस मैरथोन कहानी प्रतियोगिता के सफल आयोजन के लिए ढेर सारी बधाइयाँ। आपके अथक प्रयासों को मेरा नमन।

कला साभार:अनुष्का सिंह, वाराणसी

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