मैं बाग़ी हूँ( बग़ावत ख़ुद से...)

मैं बाग़ी हूँ... (पाठक स्वयं को इस कविता में ‘मैं’ मानकर गुनगुनाएँ) काँटों को काटकर समतल कर दूँ, और बस उसी तल पर ठहर जाऊँ, नहीं, मैं नए जल-तल का माही हूँ। मैं बाग़ी हूँ। पहाड़ तोड़कर डगर बनाऊँ, और उसी पर नित्य चलता जाऊँ, नहीं, मैं नई राहों का आँखी हूँ। मैं बाग़ी हूँ। पसीना बहाकर कुछ पाऊँ, और ठण्ड हवा पर मोहाऊँ, नहीं, मैं मेहनत की राखी हूँ, मैं,,,, एक धुरी पर स्थिर नाचूँ, और उसी पे नाचता जाऊँ, नहीं, मैं धुर-धुरी का चाही हूँ। मैं.... पैमाने में समाकर छलक जाऊँ , और नीचे झाँक इठलाऊँ , नहीं, मैं नए पैमाने का आदी हूँ। मैं भिड़कर आज़ादी पाऊँ, और ज़श्न मनाता जाऊँ, नहीं, मैं हर घड़ी का इंक़लाबी हूँ। मैं.... मरुधर को तृप्तकर दरिया बन जाऊँ, और फूले न समाऊँ, नहीं, मैं आदि-सिंधु का स्वादी हूँ। मैं... अंगारों से हाथ मिलाऊँ, फिर उनका साथी बन जाऊँ, नहीं, मैं ज्वालामुखी का आदी हूँ। मैं.... देता हूँ मैं ख़ुद को पटक ऊँचे उन अखाड़ों में, जो ख़याल मन छू जाय, कि मैं कुछ हूँ। मैं बाग़ी हूँ। मैं बाग़ी हूँ।