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मैं बाग़ी हूँ( बग़ावत ख़ुद से...)

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मैं बाग़ी हूँ... (पाठक स्वयं को इस कविता में ‘मैं’ मानकर गुनगुनाएँ) काँटों को काटकर समतल कर दूँ, और बस उसी तल पर ठहर जाऊँ, नहीं, मैं नए जल-तल का माही हूँ। मैं बाग़ी हूँ। पहाड़ तोड़कर डगर बनाऊँ, और उसी पर नित्य चलता जाऊँ, नहीं, मैं नई राहों का आँखी हूँ। मैं बाग़ी हूँ। पसीना बहाकर कुछ पाऊँ, और ठण्ड हवा पर मोहाऊँ, नहीं, मैं मेहनत की राखी हूँ, मैं,,,, एक धुरी पर स्थिर नाचूँ, और उसी पे नाचता जाऊँ, नहीं, मैं धुर-धुरी का चाही हूँ। मैं.... पैमाने   में   समाकर   छलक   जाऊँ , और   नीचे   झाँक   इठलाऊँ , नहीं, मैं नए  पैमाने का आदी हूँ। मैं   भिड़कर आज़ादी पाऊँ, और ज़श्न मनाता जाऊँ, नहीं, मैं हर घड़ी का इंक़लाबी हूँ। मैं.... मरुधर को तृप्तकर दरिया बन जाऊँ, और फूले न समाऊँ, नहीं, मैं आदि-सिंधु का स्वादी हूँ। मैं... अंगारों से हाथ मिलाऊँ, फिर उनका साथी बन जाऊँ, नहीं, मैं ज्वालामुखी का आदी हूँ। मैं.... देता हूँ मैं ख़ुद को पटक ऊँचे उन अखाड़ों में, जो ख़याल मन छू जाय, कि मैं कुछ हूँ। मैं बाग़ी हूँ। मैं बाग़ी हूँ।

कैमरे में कैद आगामी (कैमरा पूर्बाशा को न्याय कैसे दिला पाता है ? जानने के लिए पढ़ें...)

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 बड़ी हैसियतों के असली चेहरे अक़्सर   अदालतों में ही दिखते हैं । उन घरों का उठना-बैठना, खान-पान, पहनावा-ओढ़ावा, इत्यादि आम लोगों की उत्सुकता के विषय होते हैं। इन उत्सुकताओं की थोड़ी-बहुत प्यास मीडिया की चंद सुर्ख़ियों से बुझ पाती है, लेकिन अधिकांश जिज्ञासाएँ अधूरी ही रह जाती हैं। भानुप्रताप जी ऐसी ही एक हैसियत   थे । उनके दो बेटे थे। उनके दूसरे बेटे की शादी का दिन था । आम प्रचलन से परे, लड़के के घर पर ही पूरी शादी का बंदोबस्त था । वीडियो रिकॉर्डिंग में दिव्य हवेली को सहेजना था । कैमरे वाले को निर्देश था कि जो भी रिकॉर्ड करे , बिना काटे-पीटे बस जोड़ दे । कोई गाना वग़ैरह न डाले, क्योंकि वहाँ एक से बढ़कर एक हस्तियॉं शामिल थीं। सबके हँसी-ठहाकों और बातों को वैसे ही रखने के निर्देश मिले थे । हवेली में हर तरफ प्रकाश पुंजों का मेला लगा था । उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ान के चेले की शहनाई वाली पार्टी, अंग्रेजी सेना का पोशाक पहने इंग्लिश बैंड, क्रीम-पाउडर किये हुए मशहूर गायकों  की भीड़ , तबला-ढोलक-हारमोनियम लिये लोकगीत कलाकारों के दस्ते, इत्यादि हवेली में अपनी सेवा देने के लिए तत्पर रहते हैं । राजस्थानी, गुजराती,

वेयरवुल्फ का खौफ़ (वेयरवुल्फ से तो सभी भय खाते हैं, इस कहानी में थोड़ा अलग है । वो क्या है ? प्रतिलिपि से डिजिटल लेटर प्राप्त कहानी)

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घने शहर से थोड़ी दूर एक छोटा जंगल था ।  जंगल के ठीक पास पहाड़ी में एक गुफा थी, जिसमें तीन वेयरवुल्फों का एक परिवार रहता था। एक बूढ़ा नर और एक बूढ़ी मादा अपने बच्चे का पेट भरने का पुरजोर प्रयास करते थे । वो जंगल उनका इलाक़ा था, जहाँ वे शिकार करते थे । बूढ़े अक़्सर रात में जाते और भोजन का बंदोबस्त करके सुबह तक वापस आते थे । कई दिन तो खाली ही लौटना पड़ता था । जब मौत सामने हो तो शिकार की रफ़्तार को बूढ़े वेयरवुल्फ कैसे मात दे सकते थे ? उनकी आँखों का तेज भी कम हो चला था, जिसको देखकर शिकार सोच में पड़ जाते थे कि वो पलायन करें या उम्र की चपेट में आये हुए के सामने अड़ा रहें। वे दोनों अपने बच्चे के जल्दी से बड़ा होने का इंतज़ार कर रहे थे ताकि बच्चा बड़ा होकर उनका पेट भर सके ।   एक दिन दोनों वेयरवुल्फ रात में शिकार करने गये और सुबह वापस नहीं लौट पाये । बच्चा कई दिन तक गुफ़ा के प्रकाश को आस से देखता रहा, लेकिन उसको काली मायूसी ही दिखी। वो अभी शिकार करने के काबिल न था। भूख भी पेट पर दस्तक़ देने लगी थी । उसकी माँ ने गुफा के अंदर रहने का सख़्त निर्देश दिया था।  माँ को डर था कि कहीं वो ख़ुद न शिकार हो जाय । कई दिनों तक

इस माटी को गढ़ने वाले कुम्भकारों को साष्टांग

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मन में अकाल पड़ा है,  तम विकराल पड़ा है।  निशा घनघोर है छाई,  जाती न कोई राह अपनाई। कालिख की परत है मन में, लेकिन छिपे प्रकाश पुंज हैं। किंकर्तव्यविमूढ़ जीवन में, गुरुवर राह-रश्मियों की गूँज हैं। इन रश्मियों को पा पाने का, पथ सुगम बनाते हैं। नल-नील स्वयं में हैं, सबको विश्वास दिलाते हैं। सूरज है, सवेरा है, पर ये सब किताबी बातें हैं। अंधे को ताजमहल घुमाने जैसी सौग़ातें हैं। पंचमुखी सिंधु लाँघ गए जब जामवन्त ने जगाया था। अर्जुन गांडीव धर लिए जब बासुदेव ने गीता गाया था। वंदन है माटी के कुम्भकारों को जिन्होंने माटी को आकार दिया। नमन है उन जामवंतों को जिन्होंने हनुमान को साकार किया। -नवीन

अर्नेस्ट हेमिंग्वे: इनकी कलम कंजूस थी, मन लालची।

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  अर्नेस्ट हेमिंग्वे:  इनकी कंजूस कलम थी, मन लालची।  विकिपिडिआ पर पढ़िए।  छः शब्दों की कहानी: इसकी शुरुआत सबसे पहले नोबल पुरस्कार विजेता अमेरिकी साहित्यकार  Ernest Hemingway ने की थी।  चुनिंदा  केवल  छः ऐसे शब्द जो एक कहानी को कह जाँय। एक कहानी प्रेरित कर दें। मेरे द्वारा रचित कुछ और क्रमशः... तीनों बेटे कफ़न सिलकर लाये थे।  उसे सूखे ग़ुलाबों को लौटना पड़ा। कंजूस कलम थी लेकिन मन लालची। पंख मुल्तानी है पर उड़ान आसमानी। उसने नारायण को चुना, नारायणी नहीं। उसने घुटने से दम घोंट दिया। वो गहरा था इसीलिए ऊँचा चढ़ा। जनता सब नहीं बस इतना जानती है।  बदले का कालचक्र अंतहीन होता है। हर मन राम हर घर रामायण। नर, नारायण, नारायणी में नर चुनिए।  आज सबसे बड़ा गुनाह है गरीबी। ग़रीब को पैसा नहीं किताबें दीं।  ख़त में बस आँसुओं के धब्बे थे। एहसान की गठरी अन्याय करा दी। कोलाहलों में भी वो सूना था। काला रंग उसका काल बन गया। पसीने से हवा और ठंडी लगी। वो ऊँचा उठा नीचा गिरकर।