कैमरे में कैद आगामी (कैमरा पूर्बाशा को न्याय कैसे दिला पाता है ? जानने के लिए पढ़ें...)

 बड़ी हैसियतों के असली चेहरे अक़्सर अदालतों में ही दिखते हैं । उन घरों का उठना-बैठना, खान-पान, पहनावा-ओढ़ावा, इत्यादि आम लोगों की उत्सुकता के विषय होते हैं। इन उत्सुकताओं की थोड़ी-बहुत प्यास मीडिया की चंद सुर्ख़ियों से बुझ पाती है, लेकिन अधिकांश जिज्ञासाएँ अधूरी ही रह जाती हैं। भानुप्रताप जी ऐसी ही एक हैसियत थे । उनके दो बेटे थे। उनके दूसरे बेटे की शादी का दिन था । आम प्रचलन से परे, लड़के के घर पर ही पूरी शादी का बंदोबस्त था । वीडियो रिकॉर्डिंग में दिव्य हवेली को सहेजना था । कैमरे वाले को निर्देश था कि जो भी रिकॉर्ड करे , बिना काटे-पीटे बस जोड़ दे । कोई गाना वग़ैरह न डाले, क्योंकि वहाँ एक से बढ़कर एक हस्तियॉं शामिल थीं। सबके हँसी-ठहाकों और बातों को वैसे ही रखने के निर्देश मिले थे । हवेली में हर तरफ प्रकाश पुंजों का मेला लगा था । उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ान के चेले की शहनाई वाली पार्टी, अंग्रेजी सेना का पोशाक पहने इंग्लिश बैंड, क्रीम-पाउडर किये हुए मशहूर गायकों  की भीड़ , तबला-ढोलक-हारमोनियम लिये लोकगीत कलाकारों के दस्ते, इत्यादि हवेली में अपनी सेवा देने के लिए तत्पर रहते हैं । राजस्थानी, गुजराती, पंजाबी, दक्षिण भारतीय, हर जगह के व्यंजनों की नुमाइश थी। दूर-दूर के रिश्तेदारों को बुलाया गया था। पीढ़ी की अंतिम शादी थी, इसलिए प्रयास था कि कोई छूट न जाय । मीडिया भी दूल्हा-दुल्हन की फोटो लेने के लिए आयी रहती है। सुबह के अख़बार में इस तस्वीर का इंतजार था। सारे मेहमान लिफ़ाफ़ा और आशीर्वाद देकर चले गये। अगले दिन उगते सूरज के साथ दूसरा बेटा भी परिणय सूत्र में बँध गया।

  इतनी तैयारी से की गई शादी की वीडियो रिकॉर्डिंग का सबको बेसब्री से इंतजार रहता है । उसको साथ में देखने के लिए भी कुछ रिश्तेदारों को निमंत्रित किया गया था। विडिओग्राफी देखने की पार्टी का इंतजाम था।  हवेली के बाहर वाले लॉन में एक बड़ी एलसीडी पर वीडियो चल रही थी ।  सब लोग सोफे पर बैठकर वीडियो में अपने को ढूंढने में लगे थे । शादी में जो भी आये थे, सब लोग उसमें दिखने ही वाले थे । वीडियो में ऐसा लग रहा था कि शादी वाला दिन वैसे ही दोहराया जा रहा हो । वहीं नज़ारा फिर से जीवंत हो उठा हो । सारी बातचीत, शहनाई आदि ध्वनियाँ एकदम वैसी ही आ रहीं थी, लेकिन एक अज़ीब सी आवाज़ उसमें  बीच-बीच में आ रही थी , जैसे कोई रह-रहके सिसक रहा हो । कहीं-कहीं कुछ अजीब परछाइयाँ भी दिख रहीं थी, जैसे कोई औरत हो और कुछ लिये हुए हो । लेकिन प्रकाश के मेले में उस दिन कौन से आदमी की परछाई कहाँ बन जाए, कुछ कह नहीं सकते थे। वीडियो में शादी का वो समय आया , जब कुछ गिने-चुने लोग रह गए । वो आवाज़ और परछाई अभी दिख जाती थी , लेकिन पहले से कहीं अधिक प्रबलता के साथ !  भानुप्रताप और उनकी पत्नी, उर्मिला का चेहरा पीला पड़ता गया । भानुप्रताप अपनी सीट पर बैठे-बैठे ही मुड़कर पीछे की सीटों पर वीडियो वाले को ख़ोज रहे थे। वीडियो वाला एकदम पीछे बैठा मिला। अब वीडियो अपनी समाप्ति वाले क्षणों में चल रहा थे । वो वीडियो वाले के पास पहुंचकर-

 -"सुनो !"

वो वीडियो वाले को इशारा करके लॉन में पीछे ले गये। वहाँ से एलसीडी पर भी नज़र बनाये रखे, बस आवाज़ थोड़ी कम सुनाई दे रही थी। वीडियो वाले को लगता है कि सहबाइन और साहब को वीडियो बहुत पसन्द आ रही है, शाबाशी देने के लिए बुला रहे हैं, कुछ बड़े नेग की लालसा लिये पीछे-पीछे गया। 

भानुप्रताप -" इ का बना दिए हो ?"

वीडियो वाला समझ नहीं पाया , साहब क्या पूछ रहे थे ? 

वीडियो वाला, बहुत ही शालीनता के साथ, दोनों हाँथ जोड़े -"साहब !आप ही तो बोले थे न .... कोई गाना नहीं भरना है, हम जो रिकॉर्ड किये, वहीं जोड़ दिए हैं । अपनी तरफ से कोई मिक्सिंग नहीं किये। ..कुछ ठीक नहीं है क्या साहब .?.....जी "

  उधर शादी के सारे दृश्य ख़त्म हो जाते हैं, लेकिन वीडियो अभी भी चल रही थी । एक औरत और छोटे-छोटे ३ थैलों की परछाइयाँ अब साफ़-साफ़ दिख रही थी । वहीं सिसकने की आवाज़ अभी भी आ रही थी । रह-रह कर बच्चों के रोने की आवाजें ...! फिर वो परछाई एकाएक बड़ी होती गई , जैसे कोई रिकॉर्डिंग कैमरे के पास पहुँचकर लेंस बंद करने आ रहा हो । एलसीडी पर झट से अन्धेरा छा गया। सबके रोंगटे खड़े गए। ये दृश्य देखते ही काना-फुसी शुरू हो गई । मेहमानों के मन में भगदड़ मच जाती है, लेकिन कोई कुछ पूछ नहीं पाया। लोग उसको बस भय से आँखें फाड़कर देखते रह गए । मेहमानों में भानुप्रताप के बड़े बेटे का साला, विजय भी आया था । विजय की बहन, पूर्बाशा की शादी भी ८ साल पहले ऐसे ही धूम-धाम से हुई थी । उस समय वो आईपीएस नहीं बना था । अब वो पुलिस की साइबर क्राइम शोध विभाग में एसपी था । ४ साल पहले उसकी बहन की हार्ट अटैक से अकस्मात् मृत्यु हो चुकी थी । विजय को वीडियो में दिखने वाली परछाई की कद-काठी उसकी बहन से मिलती-जुलती लगी। पुलिसवाला अगर सिविल ड्रेस में रहे तो भी उसका दिमाग़ खाकी में ही रहता है। संदेह करना उसके स्वभाव में उतर जाता है । बन्दूक साथ रहे , न रहे, लेकिन बारीक़ नज़र, विश्लेषण और शोध उसके तरकश में हमेशा साथ रहते हैं । विजय को आहट हुई कि उसकी बहन पूर्बाशा के साथ कुछ अनिष्ट हुआ था । लेकिन वो भानुप्रताप से सीधे-सीधे कुछ पूछ नहीं सका । पीछे से भानुप्रताप वीडियो वाले को आँख दिखाते हुए भागकर मेहमानों के बीच आये । जैसे कोई राज़ उनके मुँह से अनायास ही निकल गया हो, ऐसा रंगहीन चेहरा लेकर सबके सामने खड़े थे। उनके चेहरे पर किसी राज़ से पर्दा उठने के बाद वाला सन्नाटा था ! सब मेहमान जैसे-तैसे बुफे खाकर अपने-अपने घर चले गये ।  

 विजय घर जाकर अपनी माँ से वीडियो वाली बात बताया । उसने पूछा कि मरने से पहले दीदी ने कुछ अज़ीब कहा हो या फिर उसका मन दुखी रहा हो ? -

विजय की माँ -"पूर्बाशा तो हमेशा फोन पर हँसकर ही बात करती थी, बस कभी-कभी उसका फोन नहीं लगता था ।"

विजय -"दीदी के अंतिम संस्कार से पहले पापा ने चेहरा देखा था ? " 

माँ -" नहीं बेटा, तुम्हारे पापा सीधे श्मशान ही पहुँचे, सब कुछ इतना जल्दी में हुआ कि ..पूर्बाशा को आख़िरी बार देख न सके । "

 विजय को उसकी बहन की मौत एक सुनियोजित अपराध और उसको छिपाने का प्रयास लगी। वो इसकी जाँच में जुट गया । पोस्ट मॉर्टम की रिपोर्ट में हार्ट अटैक ही लिखा था । लेकिन उसने पहले भी बड़े घरों के मामलों पर काम किया था, इन रिपोर्टों की सच्चाई और कीमत उसको पता थी । उसने हॉस्पिटल से सच्चाई जानने का प्रयास किया , लेकिन कोई सफलता नहीं मिली। अपनी बहन की कॉल डिटेल्स निकलवाया। कुछ खास नहीं मिला। डूगल कंपनी से अपनी बहन के जीपीएस आकड़ों का विवरण माँगा । पहले तो डूगल वाले आनाकानी किये , निजता के बड़े-बड़े कानून सिखाये , लेकिन वर्दी वाले की धौंस से ख़ौफ़ खा गए । पूर्बाशा शादी के बाद से  मृत्यु के दिन तक कहाँ-कहाँ गई , सब विवरण विजय के लैपटॉप में आ चुका था । उन आकड़ों का विश्लेषण करने पर उसको एक पैटर्न दिखा। साल में कई बार पूर्बाशा एक हॉस्पिटल जाया करती थी। उसकी बहन एकदम स्वस्थ थी, उसको ह्रदय सम्बंधित कोई बीमारी भी नहीं थी । तो उस हॉस्पिटल में पूर्बाशा किस रोग का इलाज़ इतनी नियमितता के साथ करवा रही थी ? विजय को लगा कि इस हॉस्पिटल में ज़रूर कोई राज़ छिपा है । वहाँ जाकर पूछ-ताछ करता है । पुलिस के नाम से ही हॉस्पिटल वाले भय में आ जाते हैं, यहाँ तो साइबर क्राइम वाला विशेषज्ञ आया था । वो चाहता तो हॉस्पिटल की एक-एक हरकत पता कर सकता था । डिजिटल दुनिया में सबके जीवन की क़िताब खुली है। हॉस्पिटल वालों ने बहुत सम्हलकर पूर्बाशा के चिकित्सकीय विवरण दिये । विजय उनका अध्ययन करके अगले हफ़्ते फिर हॉस्पिटल पहुँचा -

"पूर्बाशा को कोई रोग था क्या ?"

हॉस्पिटल प्रवक्ता -"नहीं, सब सामान्य था । "

विजय -"तो ये हर साल उसको ३-४ दिन भर्ती क्यों करते थे ?"

हॉस्पिटल प्रवक्ता, हक़लाते हुए -"वो जी हमारा रूटीन है, मरीज़ को स्ट्रेस फ्री करने के लिए । "

विजय गुस्सा करके -"हर साल स्ट्रेस ? साफ़-साफ़ बताओ, नहीं तो इतनी धारायें चिपकाऊँगा कि भूल जाओगे, हॉस्पिटल है कि सड़क पे लगी आईपीसी का होर्डिंग बोर्ड !"

विजय की पहुँच को ध्यान में रखते हुए हॉस्पिटल वाले ज़्यादा चुप नहीं रह सके। प्रवक्ता ने डॉक्टर को बुलाया जो पूर्बाशा का परामर्श कर रहे थे । डॉक्टर ने जो बताया उससे विजय की आँखे  खुली की खुली रह गईं-

"भानुप्रताप हॉस्पिटल ट्रस्ट के सदस्य हैं। पहली बार आपकी बहन को जब बच्चा होने वाला था तब से ही वो हॉस्पिटल पर दबाव बनाये थे कि उनके ख़ानदान को वारिश चाहिए । गर्भ के २० हफ़्ते में ज़बरन बच्चे का लिंग जाँच करवाए। जब लड़की का पाता चला तो उसका गर्भपात करने के लिए दबाव देने लगे । आपकी बहन बहुत विरोध करीं, लेकिन भानुप्रताप की मर्ज़ी के आगे उनको समर्पण करना ही पड़ा । जन्म देने में शारीरिक कष्ट बहुत होता है, लेकिन बच्चे को देखकर माँ सब कष्ट भूल जाती है । बच्चे की मुस्कान, किलकारी माँ का  मरहम होती है । लेकिन गर्भपात में दर्द वैसे ही होता है लेकिन बच्चा नहीं रहता , कोख सूनी ही रह जाती है।  यह दर्द शारीरिक कम और मानसिक घाव ज़्यादा हो जाता है । ..."

विजय-"और ये सब तुम लोग करने देते हो, पुलिस और कानून का भय नहीं है, लिंग परीक्षण वाले कानून का क्या ?"

हॉस्पिटल वाले जब इतना कुछ बोल चुके थे तो उनको कुछ छिपाना सही नहीं लगा -

"ये सब थाने की अनौपचारिक जानकारी में होता है। " 

विजय, झल्लाकर -" और फिर, ये बार-बार क्यों भर्ती किये ?"

डॉक्टर -" हमने भानुप्रताप को काफ़ी समझाने की कोशिश करी , लड़का या लड़की होने में औरत का कोई हाँथ नहीं है, यह आदमी के गुणसूत्रों से निर्धारित होता है । लेकिन वो हमारी एक नहीं सुने । हमेशा आपकी बहन को कोसते थे। भानुप्रताप के बड़े बेटे समझदार थे । उनकी हमने भरपूर दवाइयाँ चलाईं । लेकिन हर बार ...वहीं । अंतिम बार पूर्बाशा बहुत डरी हुई थी, जैसे उसके मन में कुछ चल रहा हो। उसकी बातों से लगता था कि वो अवसाद से गुजर रही थी। वैसे मीडिया में आई उसके हार्ट अटैक वाली रिपोर्ट से हमें भी संदेह हुआ था । वो कायर नहीं थी, पूर्बाशा हमें कविताएँ सुनाया करती थी । इतनी अच्छी लगी कि मैंने अपनी डायरी में लिख लीं , ये देखिये ...."

विजय की पीड़ा बढ़ती जा रही थी, उसने डायरी पढ़ी -

"मैंने देखा है, शून्य से संसार बनते हुये !

कुछ भी नहीं में ज़िंदगी पनपते हुये। उम्मीदों का घोंसला बुनते हुये। 

ब्रम्हाण्ड में नये तारे को टिमटिमाते देखा। अन्दर एहसासों का दिया जलते देखा।

मैंने एक आइने के अन्दर आइने को देखा।उस आइने को ताप में तपते देखा ।

अंतस पे आँच न आये, ख़ुद को पिघलाते देखा। अमावस के तम में ,पूरनमासी को जलते देखा।"

डॉक्टर, डायरी के पन्ने पलटते हुए -" लेकिन पूर्बाशा अपने ससुर और परिवार वालों को दोष नहीं देती थी, वो अपने रीति रिवाज़ों को कोसती थी । ये पढ़िए -

"पोथी, पतरों, पुरणो में, हाँथो, माथों की लकीरों में, कुण्डलियों, कमंडलियों में ,तेरे भस्म में, हर रस्म में,आरती, चलीसों में,रामायण के श्लोकों में, मानस की चौपाइयों में,किसी और को चाहते देखा।

हर जगह शांता को सिसकते देखा । गुमनामी में ख़ुद को खोजते देखा।

दशरथ को शांता का गोदान कर,राम लला का वरदान पाते देखा।

कौशल्या की छाती को रोते देखा। मन में इक्ष्वाकु कुल को कोसते देखा।

विजय के अंदर की ख़ाकी, बहन की पीड़ा से फट चुकी थी । अब भाई का ह्रदय पीड़ा से कराहने वाला था । इससे पहले कि आँसू उसको कमज़ोर करते वो बयान लेकर सीधे भानुप्रताप के घर पहुँचा । आज उनके घर उनका रिश्तेदार विजय नहीं, क्राइम  विशेषज्ञ विजय आया था । उसने किसी की एक न सुनी,  तर्क पे तर्क, सवाल पे सवाल करता गया । जब बहाने के सारे कवच टूट गए तो भानुप्रताप की पत्नी, उर्मिला बोलीं -

"तेरी बहिनिया ने फँसरी लगा ली, बेटा न कर सकी । क्या मुँह दिखाती, इस लाज़ से पंखे से लटक गई ?"  शर्म, अपराध बोध , पश्चाताप जैसा कुछ भी नहीं था उर्मिला के चेहरे पर । अकड़ आसमान छू रही थी । एक माँ इतनी निर्मम और पत्थर दिल कैसे हो सकती थी ! विजय को शक था, बिना किसी ठोस सबूत के वो मानने वाला नहीं था । थोड़ी देर और बहस करने पर भानुप्रताप की पत्नी -

"ई लो, चिट्ठी लिख के गई । "

विजय ने अपनी बहन की लिखावट पहचान ली थी । आगे शक़ और बहस की कोई ज़रूरत नहीं थी । उसने अपनी बहन को न्याय दिलाने के लिए आकाश-पाताल एक कर दिया । उसने भानुप्रताप की बच निकलने वाली तमाम कोशिशों के बावज़ूद, उनके परिवार को भ्रूण हत्या करवाने की सजा दिलावाई । हॉस्पिटल भी भ्रूण हत्या के दोषी पाया गया । लेकिन उसकी बहन की हत्या का कोई अपराधी साबित नहीं हो पाया।  पूर्बाशा को अवसाद से ग्रसित माना गया । मीडिया में उसको कायर भी बोला गया । लेकिन न्यायलय और मीडिया ने अवसाद के कारणों पर विचार नहीं किया। आख़िर वो क्यों हिम्मत हारी ? विजय को लगा कि उसकी बहन के साथ जो न्याय हुआ है, उसमें कुछ अधूरा था।

"अवसाद पैदा करने वाले पूर्बाशा के परिवार वाले थे ? रीति-रिवाज़ थे ? समाज था ?"

******कहानी समाप्त हुई, लेकिन न्याय अधूरा था ********

आपकी समीक्षा के लिए ह्रदय से आभारी रहूँगा । जो मन में आये,लिख दीजिये । 

-नवीन 




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