याद: उदय प्रताप कॉलेज


सादर प्रणाम,

 भाई का रिश्ता दो तरह से मिलता है:एक सहोदर और दूसरा जो यू.पी. कॉलेज में बनता है। पहला वाला, सब लोग जानते हैं, समय के साथ खट्टे-मीठे होते रहते हैं, लेकिन यू.पी. कॉलेज वाला जितना अधिक पुराना हो, उतना ही अधिक मीठा होता जाता है और उतना ही अधिक मादक भी । इस प्रांगण में देव रूप शिक्षक हैं जो कि माटी के लोगों को भी गगन चुम्बीय पर लगा देते हैं । 'गुरुर्ब्रम्हा' यहाँ चरितार्थ होता है। 

मैं, नवीन, चन्दौली जिले के गाँव नाथुपुर का हूँ। १९९९-२००३ के दौरान उस विद्यालय ने मेरे भविष्य को आयाम दिया।  BH 9 और BH -4 में २-२ साल।  मेरे जीवन में यू.पी. कॉलेज का आना एक ईश्वरीय वरदान था। २००३ में इण्टर पास करने के बाद २००४ में HBTI, कानपुर से इंजीनियरिंग में स्नातक किया। २००८ से  प्राइवेट कंपनियों में नौकरी के क्रम में BASF, Tata Motors और GM India में २०१६  तक काम किया। क़िस्मत मेहबान हुई और मेरा GM दक्षिण कोरिया में ट्रांसफर हो गया। फ़िलहाल, यहीं पर दाना-पानी चल रहा है। 

आज यादों का झरोखा BH 9 की ओर खुला है। BH:4 फिर कभी। 
मैं BH -९ के कमरा न.-२ में दिग्विजय का रुम पार्टनर था। कुछ ऐसी परिस्थितियाँ थीं कि मेरा एकसूत्रीय कार्यक्रम पढ़ाई हो गया। मेरे रहन-सहन के कारण मेरा उपनाम 'बाबा' पड़ा। वैसे इसके पीछे एक वाक़या हुआ था। आज तक शायद मैंने किसी को नहीं बताया है। मेरे पिताजी हॉस्टल में भर्ती कराने के बाद अर्दली बाज़ार की कपड़े की एक दुकान में खाकी वाली पोशाक बनवाने गया। वहाँ दुकानकार चाचा ने मेरे पिताजी को बोला कि दो तरह के लोग इस कॉलेज से निकलते हैं: एक तो बहुत ऊँचा कर जाते हैं, दुसरे टेम्पो चलाते हैं। बहुत सारे उदाहरण भी बताए। ऊँचा बनू या नहीं लेकिन मुझे टेम्पू चलाने से बड़ा भय था।




स्पेशल और गोल:
मेस गोल करना बहुत पसंदीदा विषय हुआ करता था और इसके बहुत सारे लोग विशेषज्ञ भी हुआ करते थे। वो हमारे बैच के द्वारा द्वारा किया गया पहला मेस गोल था। बाउ साहब की गंदगी वाली हरकतों से लोग बहुत ख़फ़ा रहते थे। वो वहीं बाऊसाहब जो राजनाथ सिंह या कल्याण सिंह को साफा बाँधे थे। उस दिन स्पेशल था। अण्डा करी। पहले छोटे भाइयों को खाने का मौका देकर भैया लोग सब्र किये थे। टाट पर पाँत बैठी। शुरू हुआ गरमा-गरम फूली हुई रोटियों का थाली में आना। अण्डों की सीमा थी -२। रोटी और करी असीमित। दना-दन शुरु। मुझे लग रहा था कि एक रोटी दो कवल में अंदर। उधर बाउसाहब का पारा हमारे खाने की गति के साथ चढ़ता जा रहा था। पूरा गूथा हुआ आटा ख़त्म हो चला था। पहली पाँत अभी बैठी ही थी। आज भी विश्वाश नहीं होता मैंने २५ रोटी और चावल भी चाँपा था।  मेरे बगल में बैठे सियाराम ने ३० रोटी। रणवीर सिंह ने बाजी मरी थी -५५ रोटी! केवल खाना, पानी नहीं!! पेट का कोना-कोना ठसा-ठस!!! मेस गोल !!!! बाउसाहब मेस छोड़कर बाहर आँगन में। हम लोग अपने-अपने कमरे में चले गए/ चले क्या गए, चला ही नहीं जा रहा था। अफ़रा-तफ़री और हड़कंप। भगदण !
भैया लोग हर रुम में घूम-घूम कर सबके पेट में उँगली कोंचकर मौज़ ले रहे थे। असल में किसी के पेट में कोंचा नहीं सकता था, पेट इतना सख़्त। सुभाष सर भी आये, लेकिन उस दिन उनके हाँथ में डंडा नहीं था। ज़्यादा खाने की कोई सजा भी नहीं थी। सुभाष सर के अंदर एक हँसी थी, जिसको सर ने नियंत्रण में रखा था।  शाम का समय था, कोआपरेटिव बंद हो चुकी थी। जैसे-तैसे वार्डन सर ने कोआपरेटिव खुलवाई और आटे की व्यवस्था कराई। और बाक़ी यादों में..... 

कुछ पहल :

निजी क्षेत्र में अगर किसी को जॉब, जॉब परिवर्तन में सहयोग की यथा संभव प्रयास के लिए मैं हमेशा उपलब्ध रहूँगा। 

अगर कोई कोरिया में आए तो मैं मिलने का प्रयास करूँगा। 

मैं  इस मेल-मिलाप को वर्चुअल से परे फिजिकल बनाने के लिए आप सबसे अनुरोध करूँगा कि अगर कोई कहीं जाय और अपने अग्रजों-दोस्तों-अनुजों से मिलना चाहे तो इसी ग्रुप के माध्यम से सूचित कर दें, इच्छुक लोग संपर्क कर लेंगे। निजी जानकारियों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए। 

सादर प्रणाम,
-आपका नवीन 

 

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