'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते' से लेकर 'पराधीन सपनेहु सुख नाही' तक नारी को अबला बनाने का कुत्सित सफल प्रयास

सादर प्रणाम !
आज सीता जी के राम द्वारा त्यागे जाने की सत्यता पर बहुत सारी बहसें छिड़ी हुयी है। मूल ग्रंथों में राजनैतिक और सामाजिक कारणों से राम के चरित्र में जोड़ा-घटाया गया है। आज मेरी चर्चा का विषय इस एक प्रकरण की सत्यता की पुष्टि को लेकर नहीं है। लेकिन हमारे समाज में महिलाओं की जो स्थिति है उसके पीछे के कारणों को प्रकाशित करने की है। यह सामाजिक ओहदा ग्रन्थ रचयिताओं द्वारा जानबूझकर गढ़ा गया है। जहाँ भी शास्त्रों में स्त्रियों के प्रति भेदभाव वाली भाषा लिखी गयी है या फिर पुरुष प्रधान समाज को स्थापित करने का प्रयास किया गया है, इन सबका श्रेय उन रचनाकारों को जाता है। लेकिन जो मूल भारतीय वैदिक संस्कृति है उसमे महिलाओं को ही नहीं, मनुष्यों को ही नहीं, बल्कि सब जीवों को एक माना गया है। तो फिर हम समय के साथ सबको कैसे बाँट दिये ? किसी मनुष्य को अबला और किसी को बाहुबली के ख़िताब से कैसे नवाज़ दिये ? इन्ही सवालों के साथ आइये झाँकते हैं अपनी मूल संस्कृति में नारी के स्थान में और कृत्रिम सभ्यता में जिसमें सभ्यता के नाम पर स्त्रियों का दमन और शोषण किया जा रहा है।

 मूल मंत्र: यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः (१)

Courtesy: The Golden Book of The Holy Vedas
मतलब काफ़ी जाना पहचाना है क्योंकि अक्सर सुनने को मिलता रहता है।  जहाँ पर नारियों की पूजा होती है, सम्मान होता है, वहाँ पर देवताओं का वास होता है। यह थी पहले मानव मनु की मूल मानसिकता लेकिन आज यह सोच साल के केवल एक दिन ही दिखती है। नारी सशक्तिकरण दिवस ८ मार्च के दिन। और यह भी केवल कागज़ी ढोंग है।  जो लोग लिखते हैं उनमें से कई लोग #MeToo में सराबोर पाये जाते हैं। इस पर अमल करने वाले लोग भी बहुतेरे होंगे। लेकिन साल के बाकि दिनों हम तथाकथित सभ्य संस्कृति का नकली घूँघट ओढ़ाने का काम करते रहते हैं। 

गढ़ंत मंत्र:

बहुतेरे हैं, लेकिन मेरी सीमित जानकारी के हिसाब से :

१. ऋष्यश्रृंग रेखा (२):

हमारे समाज में लक्ष्मण रेखा को महिलाओं को घोंट-घोंट कर पिलाया गया है । मर्यादा, इज्ज़त, अबला इत्यादि घर के चौखट में ही रहनी चाहिये। लेकिन पुरुषों की मर्यादा को नियंत्रित करने वाली एक रेखा थी जिसको धर्म-ग्रंथों और इतिहास से मिटा दिया गया। त्रेताकाल में अंग देश में विभान्तक ऋषि थे। मुनि घनघोर तपस्वी और ब्रम्हचारी थे।  हमेशा की तरह इन्द्र असुरक्षित महसूस करने लगे और एक अप्सरा को उनका ब्रम्हचर्य तोड़ने के लिए भेजे। इन्द्र कामयाब हुये और विभान्तक ऋषि शिकार। ऋषि अप्सरा को देखकर अपनी इन्द्रियों पर काबू न रख पाये और उनके शरीर से वीर्यपात होकर घास पर गिरा जिसे खाकर एक हिरणी ने गर्भ धारण कर लिया। और इस तरह ऋष्यश्रृंग का जन्म हुआ जो कि विभान्तक के ब्रम्हचर्य की नाकामी का जिन्दा सबूत थे। विभान्तक अपने पुत्र को इस गलती को दोहराने से रोकना चाहते थे। इसलिए उन्होंने आश्रम के चारों ओर एक रेखा बनायी जिसके अंदर कोई महिला प्रवेश नहीं कर सकती थी। और विभान्तक ने अपने पुत्र को नारी के अस्तित्व को छुपा कर रखा। अगर उनका तप तोड़ना है तो किसी भी तरह ऋष्यश्रृंग को ही इस ऋष्यश्रृंग रेखा  को लँघवाना था। 

२. 'शान्ता' बहुतेरे धर्मग्रंथों से ग़ायब (३):

राजा दशरथ को पुत्र चाहिये था क्योंकि उनको स्वर्ग जाकर अपने पूर्वजों को मुँह दिखाने लायक बनाना था। उनकी एक बेटी पहले से ही थी जिसका नाम शान्ता था। लेकिन शान्ता से उनका वंश नहीं चल रहा था। ऊपर लिखे अंग के राजा रोमपड़ के राज्य में विभान्तक ऋषि के पुत्र ऋष्यश्रृंग के प्रताप से इंद्र भयभीत थे। इसलिये उसके ब्रम्हचर्य को नष्ट करने के लिये के लिये तरह-तरह ही प्राकृतिक आपदाएँ अंग राज्य पर ढाहे। रोमपड़ की बेटी ही उस तपस्वी का तप तोड़ सकती थी। लेकिन रोमपड़ की कोई बेटी नहीं थी। रोमपड़ ने दशरथ से शांता को गोद लिया और बदले में इन्द्र से दशरथ को पुत्र दिलवाते हैं। 
यहाँ पर दो चीजें हैं। एक तो शांता की सूचना को दफ़नाया गया।  शांता की जीवनी से सम्ब्नधित पन्ने एक संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों द्वारा ग्रन्थ से ग़ायब कर दिये गये। ताकि आगे का समाज उसको जान न सके। दूसरी बात कि शान्ता को दान करके ही दशरथ को चारों पुत्रों का वरदान मिला था। मतलब बेटी ने ही पुत्र सुख का मार्ग दिया था।

३. पराधीन सपनेहु सुख नाही (४):

रामचरितमानस में जब पार्वती जी की विदाई का समय होता है तो उनकी माता मैना भारी मन से सुखी जीवन का मंत्र बेटी के'कान में फूंकती हैं-"पति की दासी बन कर रहना और चरणों में ही जीवन समाप्त कर देना"। ग्रंथों में बड़े ही चालाकी के साथ महिलाओं को दासी के रूप में बताया गया है और पति को देव जैसा। वेद में हर जीवन को समान बताया गया है। हर आदमी में भगवान बसते हैं। इस तौर पे तो महिलायें भी भगवान ही हैं। तब भगवान भगवान की दासी क्यों बनें ? यह पार्वती को कहा गया जबकि काशीनाथ जी स्वयं पार्वती जी को अपने से अलग न बताते हुये अर्धनारीश्वर कर रूप लेते हैं। 

४. चालीसे और आरतियाँ :

बाँझन को पुत्र देत निर्धन को माया। 
यहाँ पर दो शब्द हैं पहला- 'बाँझन'। समाज में जब भी बच्चा नहीं पैदा होता है तो शक की सुई , बिना मुकदमे के फ़ैसला स्वरूप, औरतों पर ही जाता है। पहले तो अबला बोलकर उसका बल छीन लो और फिर बलहीन पर सारी कमियों को मढ़ दो। पहले भी अगर राजा को संतान नहीं होती थी तो वो नयी शादियाँ करते रहते थे।  दशरथ जी भी कैकेयी और सुमित्रा को इसी क्रम में ब्याहे थे। अर्थात कौशल्या पुत्र नहीं दे पायीं तो इसमें कौशल्या की कमी थी। कैकेयी कुछ भी नहीं दे पायीं तो इसमें तो उनकी कमी एकदम सिद्ध हो जाती है। कभी कोई राजन अपने आप में झाँकने की हिम्मत नहीं किया। और यहीं आज भी हो रहा है। 
दूसरा, चालीसों और आरतियों में 'पुत्र' की ही इच्छा की गयी है। और यह इच्छा कन्या भ्रूण हत्या, आदि  जैसे जघन्य आमनवीय कृत्य को जन्म देती है। 
"बाँझ मनुष्य को शिशु देत "
 जैसे गीतों से बदलने की जरूरत है। 

ऊपर के भावों के सारांश रूप एक स्वरचित कविता :
पोथी, पतरों, पुरणो में,हाँथो, माथों की लकीरों में,
कुण्डलियों, कमंडलियों में ,तेरे भस्म में, हर रस्म में,
आरती, चलीसों में,रामायण के श्लोकों में,
मानस की चौपाइयों में,किसी और को चाहते देखा।
हर जगह शांता को सिसकते देखा । 
गुमनामी में ख़ुद को खोजते देखा।
दशरथ को शांता का गोदान कर ,राम लला का वरदान पाते देखा।
कौशल्या की छाती को रोते देखा।मन में इक्ष्वाकु कुल को कोसते देखा।
लोगों को ख़ुद की रौंद कर नवमी में तुमको खोजते देखा।
-स्वरचित  

महिला सशस्तीकरण, बल्कि उनको उनका मूल गौरव वापस करने के लिये, सभी प्रकाशकों को धर्म-ग्रंथों में महिलाओं से किये जाने वाले भेदभाव वाले प्रकरणों को भारत की मूल वैदिक सभ्यता के आधार पर सही किया जाना चाहिये। 



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सादर प्रणाम !
आपका नवीन
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साभार :
१. मनुस्मृति 
२. सीता, देवदत्त पटनायक, पृष्ट १२-१३ 
३ . महाभारत और बाल्मीकि रामायण में शांता का ज़िक्र आता है। लेकिन तुलसी कृत रामचरितमानस में नहीं। 
४. रामचरितमानस, तुलसीदास, बालकाण्ड, दोहा १०१ के बाद की चौपायी
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