सशक्त लोकतंत्र की नींव: शिक्षा

सादर प्रणाम !
 लोकतंत्र के चार स्तम्भ विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मिडिया माने गए हैं। कुछ देशों में एक या दूसरे पर कम अथवा अधिक भार है, लेकिन भारत में इन सारे खम्भों पर सामान भार है। मतलब लोकतंत्र बहुत मजबूत। इन सब स्तम्भों का विश्लेषण करें तो हम पायेंगे कि सारे खम्भों की नींव में वहाँ के लोग ही विद्यमान हैं। नींव जितनी गहरी, नींव का सामान जितना मजबूत और जितनी सधी हुयी हो, खम्भा उतना ही मजबूत होता है। और उन खम्भों पर टिकी इमारत उतनी ही दिर्घायु होती है। इसलिए लोगों की बुद्धिमत्ता, उनकी आत्मनिर्भर सोच ही निर्धारित करती है कि उस राष्ट्र का लोकतंत्र कितना सशक्त और परिपक्व है।  जागरूकता का रास्ता  शिक्षा के भट्ठे से गुजरता है। तभी वो अच्छी नींव की  ईंट बन सकते हैं। और लोग अगर समझदार होंगे तो वो चुनाव में सही चयन करेंगे। उनका चहेता प्रत्याशी किसी भी जाति, धर्म,समुदाय का हो, वो उससे परे उठकर काबिल को चुनेंगे। लोग पैसे लेकर अपना ज़मीर नहीं बेचेंगे। क्योंकि जो पैसा देकर मत लेगा वो अपना पैसा कहीं न कहीं से तो निकालेगा ही। और ये आपका पैसा ही होता है। हाल ऐसा है कि लोग एक बार पैसा ले लें तो भीष्म प्रतिज्ञा होती है कि वोट उसी को देंगे जिसका पैसा खाया है। बेईमानी भी पूरी ईमानदारी से।

 अनपढ़ मतदाता, मतपाता भाग्यविधाता : 

एक कहावत बचपन में पढ़ी थी, अन्धेरपुर नगरी चौपट राजा टके सेर भाजी टके सेर खाझा।  इसमें चौपट राजा को सिंहासन पर बैठाने का पूरा श्रेय जनता को जाता है। जाति, धर्म अथवा कोई भी पट्टी जो कि उम्मीद्वार की योग्यता को अनदेखा कर दे , लोकतंत्र को कभी भी अपने परिपक्व रूप में नहीं पहुंचने देती है। ऐसा जनतंत्र जनतंत्र नहीं कुछ नेताओं की मन गढ़ंत कठपुतली होता है। आख़िर नेता लोग जनता के आँखों पर अपने मनचाहे रंग का चश्मा कैसे भेंट दे जाते हैं ? माना कि चश्मा मुफ़्त का होता है लेकिन कोई भी मुफ़्त की चीज़ का अप्रत्यक्ष मूल्य होता है। मुफ़्त की लेने वाला अगर जागरूक हो तो उसे दाम अवश्य पता रहेगा। अज्ञानी जनता अपने आपको 'जनार्दन' अर्थात भगवान समझती रहेगी और भाग्य की चाभी नेता लोगों के दे बैठती है। अब जाति की ही बात ले लीजिये। मनु ने गुणों के आधार पर समाज का विभाजन किया और बोला की लोगों के गुणों के आधार पर एक कुल में पैदा होने वाले बच्चे की जाती बदलती रहेगी। लेकिन अशिक्षावश जाति कट्टर रूप लेती गयी और हर ब्राम्हण के घर पैदा होने वाला ब्राम्हण ही होता गया। जो शूद्र थे उनके घर भी ज्ञानी गुण वाली संताने पैदा हुयी लेकिन उनको बोला गया कि नहीं तुम केवल सेवा ही करो , तलवार कभी दी ही नहीं गयी उसको। वो ज्यादा पढ़ लिख लेगा तो सेवा कौन करेगा इस भयवश उसको स्कूल से वंचित रखा गया। फलस्वरूप समाज में कुछ लोगों का वर्चस्व बढ़ता गया और दबे हुये लोग उनका बोझा उठाने में और दबते गए। उनको मंदिरों में रोका गया, उनको जानवर बनाकर रखा गया। लेकिन शोषण अल्पायु होता है, अक्सर अकाल मृत्यु होती है। लेकिन मृत्यु के बाद भी शोषण की आत्मा भटकती रहती है, जो बदला लेती है। आज उसी भरपाई का एक रूप आरक्षण है। कर्मा। लेकिन अगर इस भारपाई को कोई भी समाज बदले के रूप में ले रहें हैं तो वो लोग ध्यान रखें कि बदले के चक्र का अंत नहीं होता है। 
   अगर धर्म कि बात करें तो सब धर्मों में मानवों को सबसे ऊपर गया है , मानवों को ही भगवान का रूप माना गया है , लेकिन अशिक्षावश सब अपने-अपने धर्म का एक ढंगी रूप निकाले पड़े हैं। जो बात उनको अच्छी लगती है उसी को धर्मग्रन्थ की सूक्ति के नाम पर लोगों को भरमा रहे हैं। कुछ ग्रन्थ तो ऐसी भाषा में लिखे हैं जिनको जानने वाले कम ही लोग हैं। यहाँ पर अनुवादक की अनुवाद क्षमता से ज्यादा उसका अपना खुद की मंशा अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। फिर उसी तथाकथित भाव-दूषित अनुवादित रूप से लोगों को भरमाया जाता है। अशिक्षा से भय की उत्पत्ति होती है और भय एक स्वच्छन्द सोच का भक्षक है। भयभीत की सोच परजीवी हो जाती है। इसी परजीविता को नेता चुनावों में अपने-अपने तरीकों से भुनाते हैं। अतः यहाँ भी शिक्षा की कमी के कारण लोगों के अंदर एक गलत विश्वाश की जड़ मजबूत की जाती है। अगर सारे लोग जागरूक हों , जवाब माँगने लगे तो जो चुना जायेगा वो जरूर नेक दिल और अपने लोगों का भला करने वाला होगा।

सौजन्य से : Ministry of Education, (format copied )

 समझदार उतना ही बनाओ कि सवाल न पूछ दें :

भारत में सार्वजनिक विद्यालयों की जो हालत है वो आप सभी जानते हैं। कुछ स्कूलों को अपवाद स्वरुप छोड़कर कोई भी दो पैसे जुटा सकने वाला आदमी सरकारी स्कूलों की बजाय निजी विद्यालयों में ही शिक्षार्थ भेजना चाहता है। अपने यहाँ कहावत है जिसको पढ़ना है कहीं से भी पढ़ सकता है। लेकिन यह बात कुछ हद तक ही सही है। उनमे से कुछ लोग जैसे तैसे आगे निकल जाते हैं और वे प्रेरणा के स्त्रोत बन जाते हैं और के लिए। ये प्रेरणा कम और अनुचित दबाव ज्यादा होता है। लेकिन यह सही मूल्यांकन नहीं है। क्यों सरकारी स्कूल के दूसरे बच्चे अच्छा नहीं कर पाये ? यह सवाल पूछने की जरूरत है। हमारी सरकारें क्यों आम आदमी को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराने में असमर्थ रही है ? कहीं वो इरादतन तो नहीं चाहते कि सब न लोग पढ़े, जागरूक न बने ? जब सब जागरूक बन जायेंगे तो उनके मागों का मानक भी ऊपर उठ जायेगा। जनता की जागरूकता बढ़ने के साथ-साथ सरकार की जवाबदेही भी बढ़ती जाती है।  सतर्क जनता हमेशा सरकार की नकेल कसी रहती है क्योंकि जनता को पता होता है कि उन्होंने ही सरकार बनाया है। न कि उल्टा। पहले समाज के कुछ वर्ग शिक्षा के सार्वजनीकरण से डरते थे, आज सरकार के भी इरादे पर शक होता है। एक नज़र भारत की शिक्षा बजट पर डालें तो विगत कई वर्षों में खर्च सकल घरेलु उत्पाद  (GDP) का लगभग ३ %रहा है। ऊपर के दिए गए आकड़े के अनुसार शिक्षा हेतु रखा हुआ पैसा भी सरकार खर्च करने में विफल रही है जिसका मतलब साफ है कि शिक्षित समाज सरकार की प्राथमिकता नहीं है। लेकिन ध्यान रखना होगा की अगर समाज शिक्षित नहीं होगा तो हमारी अर्थव्यवस्था कभी भी विकास नहीं कर सकती है। क्योंकि देश का नौजवान जब पढ़ेगा तभी वह अपने देश की समस्याओं को सुलझाने में सक्षम होगा। वह अपने तरीकों से समाधान ढूंढेगा न कि वो किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के रास्ते का अनुसरण करेगा। यह बात माइक्रोसॉफ्ट के तत्कालीन CEO श्री सत्य नाडेला ने अपनी आत्मकथा 'Hit Refresh' में भी कही है कि हर सरकार चाहती है कि झट से बड़ी-बड़ी कम्पनिया उनके यहाँ अपना दफ्तर खोल दें जिससे कि बेरोज़गारी की समस्या का त्वरित निदान हो सके। और सरकार उसको अगले चुनाव में भुना ले। लेकिन उनके देश का नौजवान स्वतः इस योग्य बने कि वो १० लोगों को रोजगार उपलब्ध करा सके, सरकारी तंत्र उस दिशा में काम नहीं करता है जिसकी शुरुआत होती है सही शिक्षा से।
अक्सर चुनावों में एक बहुत ही विरोधाभाषी वक्तव्य सुनने को मिलता है। "जनता सब जानती है। " यह लाइन मतदाताओं को मक्खन लगाने वाली है। यह घूस खाने वालों का जनता को मखमली कपड़े में लपेटा हुआ घूस है। क्योंकि नेता जी लोगों को पता रहता है कि इनको तो मैंने एक सीमा तक ही जानने योग्य बनाया है तो उतने में ही बौड़िया रहे हैं सब। थोड़ा अगर शब्दों के साथ खेला जाय और इस वाक्य के 'सब' को उल्टा किया जाय तो वास्तविकता बाहर निकल आयेगी।  जनता बस (इतना ही) जानती है। जनता को छोड़िये कुछ दलों और समूहों में लोगों की अपनी कोई राय ही नहीं है। वहाँ पर बस ऊपर से आदेश आता है और उसका अक्षरशः अनुसरण होता है। सवाल पूछना पाप है और ग़दर के रूप में देखा जाता है। ऐसे में लोकतंत्र कहाँ साँस लेगा ? वो तो ICU में कुछ नेताओं के वेंटीलेटर पर ही पड़ा मिलेगा।

दक्षिण कोरिया के लोकतंत्र से सरोकार 

भूत, भविष्य का लेखा-जोखा:

  कोरिया में भी चुनाव के प्रचार का तरीका इस लेख का कारण हैं। यहाँ पर लोगों के पास इतना समय नहीं है कि रैली में भीड़ बनकर नेता जी का उपदेश सुनें। तो नेता जी के प्रचारकर्ता जहाँ पर भी लोग जमा होते हैं जैसे रेलवे स्टेशन , मार्ट , बाज़ार इत्यादि वहीं खड़े होकर अपनी बात को रखते हैं , मतलब भीड़ नेता जी को नहीं जोहती है, नेता जी लोग भीड़ निहारते रहते हैं। फिर एक दिन मुझे एक प्रत्याशी का बिज़नेस कार्ड दिया। जो लिखा था उसपर उसका मैंने अनुवादित स्वरुप प्रस्तुत किया है। इसमें प्रत्याशी की पूरी resume है। उसने कहाँ से और कितना पढ़ा है , क्या कौन-कौन सी पोस्ट पे काबिज रहा है अर्थात अपनी सही मायने में दावेदारी को जनता के सामने रखता है। साथ में चुनावी वादे भी रहते हैं। तो मैंने उत्सुकतावश कोरियन मित्र को कार्ड दिखाया। मित्र ने बताया कि वादे वादे ही रह जाते हैं। लेकिन गौर करने की बात है कि उसका भूत। वह लिखकर देना। एक बार तो एक स्थानीय चुनाव में एक प्रत्याशी के कार्ड पर लिखा था कि वो किसी यूनिवर्सिटी में किसी कोर्स में दाख़िला लिया है, यह कोर्स उसके चुनावी पद से सम्बंधित था । तो अगर जनता समझदार हो तो प्रत्याशी भी समझदार ही आते हैं , या होना पड़ता है। भारत के २०१९ के लोकसभा चुनाव का एक आकड़ा कोरिया में बहुत उछला था। चुने हुये सांसदों में से ५० % से ज्यादा लोगों पर मुक़दमा चल रहा था। मेरे एक मित्र ने कौतुहलवश मुझसे इसका जिक्र किया। उनका सवाल चुने हुए लोगों पर नहीं था, चुनने वाले लोगों की बुद्धिमत्ता पर था।
प्रत्याशी का संक्षिप्त विवरण Business Card के माध्यम से 

जगती है जनता तो कारवास में सोता है राजा:

   कोरिया का लोकतंत्र चुनाव में ही नहीं जगता है , हमेशा सजग रहता है। उसका एक उदहारण है २०१६ में यहाँ की तत्कालीन राष्ट्रपति महोदया श्रीमती पार्क गुन्ह्ये (박근혜) पर चलाया जाने वाला महाभियोग। इनकी स्थिति मनमोहन सिंह जैसी थी। वे खुद निर्णय न लेकर दूसरे देश में बैठे एक दोस्त के द्वारा लिए गए निर्णयों पर मुहर लगाती थीं। वो कोरिआ के बहुत ही ताकतवर नेता जो कि पूर्व राष्ट्रपति भी रहे थे ,की बेटी थीं। पिता प्रभुत्व इतना था कि उनको चाहने वालों से अधिक न चाहने वाले थे। लेकिन बेटी उनके नाम पर अपना काम चला रही थी।  नेतृत्व क्षमता नहीं थी फिर भी लोग उनको पिता के कारण जिता दिये। इनको लोग राजकुमारी भी बोलते थे। यहाँ भी भ्रष्टाचार होता रहता हैं , मनुष्य की लालची प्रवित्ति सार्वभौमिक है। लेकिन जब भ्रष्टाचार सर से ऊपर जाने लगा तो जन सामान्य सडकों पर आ गया था। मैंने उस विरोध को देखा था। कोई प्रायोजित विरोध नहीं था , लोग स्वतः यहाँ के इंडिया गेट कहे जाने वाले Gwanghwamoon  (광화문) पर लाखों की संख्या में जमा होकर शांतिपूर्ण प्रदर्शन करते थे। बिना किसी सार्वजनिक सम्पत्ति को हानि पहुँचाये। क्योकि उनको ज्ञात था की ये उन्ही के पैसों से खरीदा गया है। जनता का दबाव इतना ज्यादा था कि सदन का विशेष सत्र बुलाकर, महाभियोग के तहत उनको राष्ट्रपति पद से हटा दिया गया। उनके खिलाफ आरोप साबित हुए और आज तीन साल से ऊपर हो गये हैं, अभी में जेल में सजा काट रही हैं। इनको मिलाकर दो भूतपूर्व राष्ट्रपति भ्रष्टाचार के मामले में जेल की सजा काट रहे हैं। लोगों की सजगता का दूसरा उदाहरण पिछले वर्ष किसी सरकारी विभाग में फेर बदल हुयी , विभाग का नया अधिकारी ने काफी पुराने ढांचे को वर्तमान जरूरतों के अनुसार आमूल चूल रूप से परिवर्तन कर दिया। तो वहाँ के मौजूदा अधिकारीयों ने अपने नए साहब के खिलाफ ही जांच करने में जुट गए। जनता को विभाग की जमीनी हकीकत पता थी। नये अधिकारी के समर्थन में फिर सड़क पर लोग उतर गए थे। एक निजी कंपनी धमकी दे रही थी कि हमें सरकार पैसा दे नहीं तो हम बंद कर देंगे। उस समय लोग अपने टैक्स का पैसा किसी गैरजिम्मेदार कंपनी को न देने के लिए सरकार पर दबाव बनायीं थी। तो सब मिलाकर यहाँ पर लोग लोकतंत्र में हिस्सेदारी केवल मत देने तक ही नहीं रखते हैं बल्कि हर समय अपनी भागीदारी बनाये रखते हैं। और यह संभव तभी है जब लोग शिक्षित रहें औरअपने स्थायी हितों को चंद रूपयों के साथ सौदा न कर लें।
अभी हाल ही में कोरिया CORONA 19 के महामारी से जूझ रहा है। या चीन में शुरू होकर पूरे विश्व में पसर रहा है। इसका इतना तेज प्रसार वैश्वीकरण का साइड इफ़ेक्ट है। बहुत सरे देशों ने सतर्कता बरतते हुये चीन के लोगों के लिए अपने देश के दरवाजे अस्थायी रूप से बंद कर दिए। कोरिया के राष्ट्रपति थोड़ा दयालु हैं और चीन के साथ हमदर्दी दिखाते ये अपने देश का दरवाजा खुला रखे। दूसरा कोरिया में आने वाली मास्क की जरूरतों को अनदेखा करते हुये चीन को ३० लाख मास्क निर्यात कर दिया। इसके कारण कोरिया में मास्क की कमी हो गयी और जो थे वो ३-४ गुना दाम में बिकने लगा। यहाँ पर भारत जैसा MRP वाला हिसाब नहीं है , दुकानदार अपना स्टीकर ख़ुद लगा सकते हैं।  नतीजा, महामारी फ़ैल गयी। लोगों ने उन पर महाभियोग चलाने की मांग करते हुये याचिका दायर कर दी है। आरोप है कि आपका व्यवहार कोरिया के राष्ट्रपति का कम चीन के राष्ट्रपति से अधिक मिलता है । देर से दरवाजा तो बंद कर दिया लेकिन हास्यास्पद बात यह है कि चीन ने कोरियन लोगों के लिए अपने दरवाजे बंद करने में जरा भी भाईचारा नहीं निभाया।
  अगर लोकतंत्र को सही मायने में जीना है तो भारत में शिक्षा को वरीयता मिले। चुनाव में शिक्षा भी मुद्दा बने। सभी को अच्छी शिक्षा कम या बिना लागत के सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जाये। ये काम केवल बजट से ही नहीं होगा। शिक्षा से जुड़े हर पहलू पर काम करने से होगा। चाहे वह स्कूल हो, चाहे छात्र हों, पाठ्यक्रम हों; सब में आमूल-चूल  सुधार समय की मांग है। गाढ़े मन से लिखना पड़ रहा है कि हमारे शिक्षकों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति ऐसी है कि बचपन से ही शिक्षक बनने की कामना करने वाले बच्चे नहीं के बराबर मिलेंगे। फ़िर मन मारे हुए गुरूजी लोग बच्चों का कितना कल्याण कर पायेंगे ? हमेशा अपवादों के साथ...
सादर
-नवीन
मेरा You Tube चैनल SUBSCRIBE करिये, आशा है आप निराश नहीं होंगे।
https://www.youtube.com/channel/UCXsDzRmZ5Tkj3iyzDhP4vow

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मशीनें संवेदनशीलता सीख रही हैं, पर मानव?

हुण्डी (कहानी)

कला समाज की आत्मा है, जीवन्त समाज के लिए आत्मा का होना आवश्यक है।