२१ दिन भारत की सहनशीलता की पुनर्परीक्षा

प्रणाम !
  ताजमहल ही भारत का अजूबा नहीं है। यहाँ की अरबों की जनसंख्या हमेशा विदेशी लोगों की उत्सुकता का कारण होती है। कैसे इतने सारे लोग एक झंडे के नीचे रह सकते हैं ?आज संकट के समय जब दुनिया की सर्वोच्च ताकतें घुटने टेकती  हुयी नज़र आ रहीं हैं, वहीं भारत के पास मौका है यह सिद्ध करने का कि दुनिया हमें केवल एक भावी बाजार के रूप में न देखे। केवल सस्ते मजदूर के रूप में न देखे, बल्कि ये देखे कि इस देश के सारे लोग अपनी-अपनी विविधताओं मनमुटावों की अनदेखी करते हुये एक साथ राष्ट्रहित के लिए खड़े हो सकते हैं। अभी तक यहीं देखने को मिल रहा है। सारे राज्य के मुखिया परस्पर राजनैतिक मतभेदों को त्यागकर केवल  एक मात्र लक्ष्य जन-रक्षा की धुनि रमाये हैं। अगर कोई सवाल करे कि इस संकट में क्या अच्छा दिख रहा है तो मेरा जवाब  होगा "एक जुट भारत ".
  संकट की इस घड़ी में हर देश अपनी ताकत पर भरोसा किये पड़ा है। जिन देशों को अपने संसाधनों पर ज्यादा घमंड था, उनकी सारी शक्तियाँ बेबसी में कराह रही हैं । अति आत्मविश्वास के चक्कर में समस्या का गलत आकलन किये और आज पछता रहे होंगे। वो देश जो भी संसाधन संपन्न थे, चिंगारी को महामारी बनने का इंतजार करते रहे। हर देश अपने स्ट्रांग पॉइंट्स पर दाव लगाता है। धीरे-धीरे पता चला की इस युद्ध में सबके लिये मैदान बराबर था। एक मात्र हथियार था सजगता। भारत का स्ट्रॉंग पॉइंट हैं बुद्धि , जी हाँ हम बुद्धि का निर्यात भी करते हैं।  जब दवा नहीं है तो बीमारी होने देने का जोख़िम ही मत लो। सत्य है कि भारत की स्वास्थ्य सेवा हमारी ताकत नहीं है, तो जोखिम उठाने का कोई सवाल ही नहीं था। जब पोखरण में सफल परमाणु परिक्षण के बाद जब सारे विरोधी नेता अटल जी को घेरने लगे कि देश पर ऐसी क्या मुसीबत आ गयी थी कि आपको परीक्षण करने की नौबत आ गयी। तब उन्होंने सदन में कहा था कि तैयारी ऐसी हो कि मुसीबत में पड़ने की नौबत ही न आये। इस संकट में भी भारत इसी मूल मंत्र को जपता हुआ दिख रहा है। सरकार ने सबसे पहले इस बीमारी के उद्गम देश के लोगों की एंट्री रोक दी। यह बहुत बड़ा कदम था। चीन जैसी आर्थिक ताकत के लोगों को रोकना आसान कूटनीतिक निर्णय नहीं है। इस गलती का भुक्त-भोगी दक्षिण कोरिया बना। कोरियन मीडिया में कोरिया की कूटनीतिक क्षमता पर सवालिया निशान भी लगे कि "ब्लॉक करना नहीं चाहते या कर नहीं सकते ?" मजे की बात कि जब कोरिया में बढ़ने लगा तो ड्रैगन ने जरा भी कोताही न दिखते हुए कोरिया की एंट्री निषेध कर दी। यह तो रही उद्गम की बात, इसके बाद विदेश मंत्रालय प्रतिदिन महामारी फैले लोगों के सम्बंधित नयी-नयी निति लाते रहे और लगातार फेर बदल करते रहे । नेगेटिव टेस्ट के प्रमाण पत्र की अनिवार्यता से लेकर पूर्ण प्रवेश निषेध तक इसमें शामिल था। इन्ही सब भगीरथ प्रयासों का परिणाम है की सवा सौ करोड़ वाले ड्रैगन के इस पड़ोसी देश ने दूसरे चरण पर ही थाम रखा है।


गाँधी, शिवाजी, महाराणा को श्रद्धांजलि देने का अवसर : 

जब तक बात घर की दहलीज पर थी तब तक बिना घर वालों को बताये मुखिया लड़ता रहा। और बहुत आउट ऑफ़ बॉक्स तरीके से। अब बात घर के अंदर आ चुकी थी। अकेले के बस का नहीं था। जनता और जनार्दन दोनों को साथ में काम करने की बारी थी। लेकिन सरकार की  तमाम अपीलों के बाद लोग उचित सहयोग नहीं दिए। उम्मीद से परे पढ़े लिखे लोग ज्यादा नासमझ निकले। जिसका परिणाम है २१ दिन की लक्ष्मण रेखा। स्थिति युद्ध से कम नहीं है बल्कि उससे भयावह है क्योंकि यह लड़ाई सीमा पर नहीं पूरे हिंदुस्तान में लड़ी जा रही है। हर जन सैनिक है। सामान्य आदमी से लेकर चिकित्सक, वैज्ञानिक, कारोबारी, सब्जी-दूध के दुकानदार, सफाईकर्मी, जो लोग भी घर से निकलते हैं कि अगर मैं आज नहीं जाऊंगा तो किसी और को घर में रहने में दिक्कत होगी , सारे लोग आज सैनिक हैं। सैनिक एक भावना है कि आज वो नहीं लड़ेगी तो सामान्य जनजीवन खतरे में आ जायेगा। इसी भावना को आज व्यापक रूप में देख रहा हूँ मैं। कारगिल के युद्ध के समय पूरे देश का नैतिक और आर्थिक समर्थन सरकार को मिला था। वहीं आज भी चहिये। अब कोई सरकार घुटने नहीं टेकती है। सरकार लोगों से बनती है, अगर लोग अड़े रहेंगे, सरकार को दम मिलेगा और सरकार भी लड़ती रहेगी। लोग समर्पण कर देंगे तो सरकार का मनोबल ज्यादा दिन तक नहीं टिक सकता। क्योंकि ध्यान बटेगा कि लोगों को समझायें या इस मुसीबत से बचायें। चुनाव हमें करना है। साथ ही ये परिवार के साथ बिताने का अच्छा अवसर है। ये २१ दिन सामान्य तो नहीं होंगे। थोड़ी दिक्कतें जाहिर हैं। तो देश सेवा समझकर कर लीजिये। इस निर्णय से देश बहुत बड़ा आर्थिक जोखिम पहले ही उठा चुका है। फिर भी लोग प्रयास में लगे हैं कि कोई भूखे न सोये। क्या पाता इन २१ दिनों में उनको भी खाना मिल जिनको सामान्यतया नसीब नहीं होता था।
  आदमी बहुत क्रीम पाउडर लगा के चमकता रहता है, ज्यादातर उसको स्मार्ट की की संज्ञा दी जाती है। लेकिन जैसे ही संकट आता है , क्रीम पाउडर पसीने के साथ बहने लगता है। साँस तेज हो जाती, धड़कन धाय -धाय चलने लगती है। सोचने की क्षमता कम होने लगती है। उस समय सब बाहरी चीज हार जाती है और जंग शुरू होती है आदमी के चरित्र से कि वो कितनी दृढ़ता और संयम के साथ संकट को सहन करता है। संयम बनाये रखता है। अगर ढीठ आदमी नहीं है तो वहीं धराशायी हो जायेगा। यहीं चरित्र देशों का भी होता है और भारत विश्व में सहनशीलता की मिसाल है। गाँधी, शिवाजी, महाराणा के चरित्र हमें विरासत में मिले हैं। आज उनको श्रद्धांजलि देने का भी मौका है।

सफ़र तूफ़ानी होगा,
लेकिन लड़ते रहना ही बुद्धिमानी होगा।
माना कि समर में शत्रु अनजानी है,
हे पृथ्वीराज ! आज शब्दभेदी ही इमानी है ।
  जहाँ अभी ड्रैगन की नीयत पर संदेह चल रहा है वहीं वो दूसरे देशों की सहायता भी कर रहा है। उसकी जमीन विस्तारक मंशा भारत से अच्छा और कोई देश नहीं समझ सकता है। अब लोगों की आर्थिक मदद करके व्यवसाय के जरिये नयी ईस्ट इंडिया कंपनी बनकर अप्रत्यक्ष रूप से शोषण कर सकता है।
"I always lost sight of the demoralizing influence of charity on the receiver." 
-स्वामी विवेकानंद 
अब दो रास्ते हैं या तो हम अपनी स्थिति को जानकर देश के प्रधान का पूरजोर समर्थन करें। निराशा में डूबी दुनिया को दिया दिखाएँ या फिर सरकार यानि अपनी टाँग खींचे और किसी ईस्ट इंडिया कंपनी के हांथो में देश को सौंपने का रास्ता खोल दें।


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