अवसाद (Depression) :एक अछूत और गुमनाम

सादर प्रणाम ,

  शब्दों की अपनी ऊर्जा होती है , इसलिए कभी भी आपको ऊर्जा से दूर करने वाले शब्द-प्रयोग से मैं बचना चाहता हूँ।  लेकिन आज का विषय ऊर्जा की कमी से ही होता है। यह विषय जीवन के अति सूक्ष्म पहलुँओं में से एक है ,और भगवान न करें किसी को ये पहलू छुये । फिर भी अगर छू गया तो इसके विषय में अनभिज्ञता भयंकर हो सकती है ।
अवसाद: अंतस जलता है , बाहर कुछ और ही दिखता है ।
   

अवसाद के लक्षण:

वैसे तो अगर आदमी को किसी प्रकार का दर्द हो तो वो डॉक्टर को  साफ-साफ बता देता है कि मुझे यहाँ कष्ट है। और डॉक्टर साहब उसका उपयुक्त इलाज़ करते हैं । लेकिन एक ऐसी स्थिति आती है जब आदमी को ख़ुद ही नहीं पता चलता है कि उसको हुआ क्या है ? मन अशांत होता है। धड़कने हमेशा सामान्य की तुलना में तेज होती है। शरीर को चलाने के लिये भोजन ऊर्जा देता है लेकिन असली में देंह डोलती है दिमाग से। इस समय दिमाग अपनी क्षमता के निम्न स्तर पर काम करता है। पहले जो काम आसानी से हो जाते थे , उनको करने में मुश्किलें आती हैं। ऐसा लगता है कि आदमी कुछ दिनों के लिए अपनी पहचान भूल गया है। अपनी क्षमताओं को खोज रहा है। हनुमान जी जैसा अपनी क्षमताओं को भूल गया होता है। दिन पर दिन ये स्तिथि बिगड़ती जाती है।  आदमी सबके बीच में रहते हुए भी , कभी शामिल नहीं होता है। हँसता तो है लेकिन केवल रंगहीन होठों से। असली में उसका हृदय हमेशा रोता रहता है।  और धीरे-धीरे वो सबसे दूर होता जाता है । उसको लगता है कि वो अपनी स्थिति लोगों से साझा नहीं कर पायेगा। क्योंकि उसको क्या हुआ है ? ख़ुद को भी नहीं पता रहता है तो दूसरों को समझा पाने की उम्मीद वो कैसे रखे। अगर सही डॉक्टर से भेंट नहीं हुयी तो ज्वर-बुख़ार वाले साहब लोग दिक्कत को पकड़ ही नहीं पाते हैं। जो भी लक्षण आदमी डॉक्टर साहब को बताता है, सबकी एक-एक गोली चला देते हैं। कोई तो लह जायेगी। लेकिन ये तो बिना प्रश्न पत्र पढ़े उत्तर लिखने वाली बात है। केवल पन्ना भरना चाहिये। इसका परिणाम ये होता है कि आदमी की मनः ऊर्जा न्यूनतम रेखा को छू जाती है , और विवेक शून्य आदमी कोमा में चला जाता है। पर्थिव हो जाता है। और फिर उसको जीवन जीना दूभर लगता है। जीने का कारण धुंधला होता जाता है। सामान्यतया ऐसे लोग इस टाइप की घटित  घटनाओं में सहानुभूति ज़रूरत से ज्यादा दिखाते हैं। मजाक में ही -अब भगवान उठा लें , या फिर मेरा ऐसा करने का मन करता है , इन संभावित कृत्यों का इशारा देते हैं। चेहरे का रंग आदमी की मानसिक स्थिति का झरोखा है। यह रंग फीका ही नहीं, उड़ा हुआ रहता है। पहले से ज्यादा अकेले में रहना चाहता है। सबके बीच में बैठे-बैठे दिमागी रूप से अनुपस्थित रहता है। मुस्कान उसकी बेईमान होती है और हँसी धोखेबाज़। नज़रे मिलाने में कतराता है।आगे वो क्या कदम उठा सकता है? आप ख़ुद समझ सकते हैं। इस गुमनाम बीमारी को अवसाद (डिप्रेशन) कहते हैं।

अवसाद के प्रति समाज का रूख और जिम्मेदारियाँ:

   जो आदमी इस जंग से अंदर ही अंदर जूझ रहा होता है , बात उसके अगल बगल के लोगों की। ये 'लोग' बहुत व्यापक हैं।  घर, पड़ोस, दोस्त और दफ़्तर। जहाँ भी वो समय बिताता है  इसके दायरे में आते हैं। उनको भी इस अन्तर्युद्ध की भनक तक नहीं लगती है। अगर घर के लोगों को पता चल भी जाये कि ये समस्या है, तो ये बात बाहर न फैल जाय , उसको ऐसे छुपाते हैं। उसके साथ ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे उसको कोई छूआछूत की बीमारी हो। इस बात के फैलने से सामाजिक स्तर में गिरवाट आने का भय होता है। इसको लेकर काना-फुस्सी ज्यादा होती है। लेकिन इन सबके बावजूद ग्रसित आदमी को जो भावनात्मक मदद चाहिये , नहीं दे पाते। हमेशा आदमी खुश रहे ऐसा संभव नहीं है , कभी उतार भी होता है। और यह प्राकृतिक है। उस उतार में लोग कितना भावनात्मक रूप से खड़े रहते हैं , यह सम्बन्धो की गहराई का मापदण्ड है। और यह साथ नये से शुरू करने की हिम्मत और आशा देता है। जामवंत बनकर हनुमान जी को उनकी समुन्द्र लांघने की क्षमता को याद दिलाते रहने वाली बात है। लेकिन हम मदद तभी कर पाएंगे जब ख़ुद सतर्क रहेंगे , इससे ग्रसित आदमी के ऊपर लिखे लक्षणों को जानेंगे। उनकी बातों को गौर से सुनें और इन लक्षणों पर ध्यान दें।
   ऐसे में अगर कोई पास-पड़ोस का जानकार आदमी सही डॉक्टर, यानि मनोचिकित्सक  से मिलने का सुझाव दे भी दे तो परिवार वाले सोचते हैं कि ये तो पागल बोल रहे हैं।  उसका सुझाव मान मर्दन और कलह का कारण बनता हैं। वैसे मैंने कम चर्चित शब्द का प्रयोग किया है। ऐसे डॉक्टर साहब लोग गाँव में `पागलों के डॉक्टर `नाम से कुख्यात होते हैं।अगर समय रहते सही डॉक्टर से भेंट हो जाय तो तो स्थिति सुधर सकती है। 
   जब मैं कोरिया की एक यूनिवर्सिटी में कोरियन की पढ़ाई कर रहा था तो वहाँ , शौचालयों में अवसाद के अंतिम चरण पर खड़े छात्रों के लिये परामर्श के विवरण लिखे रहते थे। २४ X ७ हेल्पलाइन नंबर होते थे।  फिर मुझे जिज्ञासा हुई कि इतना खुला कैसे बोल पा रहे हैं लोग ? यहाँ पर यह भयंकर समस्या है।  विश्व के औद्योगिक देशों में आत्महत्या की दर में कोरिया प्रथम स्थान पर है । इसका सबसे बड़ा कारण है यहाँ के बच्चों के पीठ पर सुबह ८ बजे से रात १२ बजे तक का बोझा। प्रतिस्पर्धा। विकास तो खूब किये लेकिन उसकी इतनी बड़ी कीमत अभी तक चुका रहे हैं। यहाँ पर एक तो बच्चे कम पैदा होते हैं, दूसरे अगर लोग समय से पहले निकल लेंगे तो देश कौन चलायेगा।  इस समस्या से जूझने के लिए सरकार बड़ी ही मुश्तैदी से लगी रहती है। शैक्षिक संस्थानों पर नकेल कसने के अलावा आम नजता को इसके बारे में खुलेआम बताने का काम करती  हैं। पतझड़ के मौसम में इस बीमारी के शिकार लोग ज्यादा होते हैं।  मुख्य कारण है कि लोग दफ़्तर जाते हैं तो उस समय अँधेरा रहता है , घर वापस आते हैं तो अँधेरा। सूरज से भेंट ही नहीं। इस मौसम में जागरूकता वाले सन्देश भी आते हैं।  लोगों को सूर्य स्नान करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। होने वाले लक्षणों से अवगत कराना और फिर न होने के उपाय बताना जागरूकता के दो स्तम्भ हैं। इसमें यहाँ का सामाजिक तंत्र बहुत ही कुशल है । सरकार ने नदि के पुल , रेल की पटरियाँ , ऊँची इमारते इत्यादि दुर्घटना बाहुल्य जगहों पर घर वापस लौटने की प्रेरणा देने वाले  भावनात्मक सन्देश लिखवाये हैं , जिनको पढ़कर घर लौटने वाले लोग भी पाए गए हैं। 
आप कैसे हैं?
दिन कैसा रहा ?
 बच्चे आपका इंतजार कर रहे हैं। 
घर में बीवी /पति आपकी राह.... ।  
बूढ़ी माँ की दवा  ?  
कल नयी सुबह होगी।
 ..... 

 इन सब से यहीं साबित होता है कि अगर हमारे पास ऊपर लिखी भावनाओं को जगाने वाला कोई हो तो इन जगहों पर पहुँचने की नौबत ही नहीं आयेगी। पैरों में भावनाओँ की बेड़ियाँ नयी सुबह की आस में फाँस देंगी। रिश्तों की दहलीज नहीं पार कर पायेगा। अगर ये सब सन्देश पढ़ करके भी वो नहीं रूका तो ये उसकी कायरता तो होगी ही होगी, लेकिन ऊपर लिखे सारे रिश्ते हारेंगे। उनके चहरे का चुम्बक इतना तगड़ा न था जो आदमी को वापस न खींच सके । जो चला गया उसको लोग कायर कहते हैं , लेकिन वो शुरू से ऐसा नहीं था, ऐसा होता तो सेना के लोग अवसाद में कभी नहीं फसते और जीवन सीमा को नहीं लाँघ जाते।

बच्चों को शुरू से ही मानसिक रूप से दृढ़ बनायें:

  बच्चे सबके अज़ीज होते हैं। आदमी राजा हो या रंग उसके बच्चे उसके लिये हमेशा राजकुमार और राजकुमारी ही होते हैं। लेकिन ये बच्चे बड़े होकर अपने जीवन की समस्याओं से खुद जूझ सकें, इसका अवसर देने की जिम्मेदारी भी माता-पिता की ही होती है। हमेशा सोना बाबू बना के रखना खुद को बहकाने और बच्चे के साथ धोखा करने वाली बात है। समय पड़ने पर उनके उम्र के मुताबिक समस्याओं के दंगल में उतारना चाहिये। एक बार मुश्किलों को चित्त कर लेंगे तो अगली बार और तगड़ा लड़ेंगे। थोड़ा पढ़े लिखों की ज़ुबान में बोलें तो  वास्तविक केस स्टडी करवा चाहिये। इससे उनकी मुश्किलों से लड़ने की दिमाग की नसें और तगड़ी होंगी। जितना ज्यादा केस स्टडी , भविष्य में उतना ही अच्छा मैनेजमेंट। बड़े होने पर कोई बटन नहीं होगी बच्चों के पास की पट से दबाये और झट से वयस्क मॉड में आ गये। और समस्या का समाधान।
   मेरा कहने का मतलब पढाई वाला भार देना एकदम नहीं है। वो तो बच्चे को प्राकृतिक रूप से सीखने दीजिये।  ठूंसने का जमाना नहीं रहा।  ठूंस करके दर्जा डांक सकता है , आने वाली पीढ़ी असल में सीखने और साबित करने की होगी। जीवन के प्रयोगात्मक भार से जूझने के अभ्यास से है। अगर आप बच्चे को कोटा भेजने की तैयारी में हैं तो थोड़ा रुकिएगा।  साँस भरिये और बीबीसी की रिपोर्ट पढियेगा।  जिसमे कोरिया में बच्चों पर कितना भार है , आप जान सकेंगे। मैं इसका गवाह हूँ। और अपने बच्चों को इस भार से बचाइयेगा। जितना तेज़ी से मशीनीकरण हो रहा है , उसमें उतना ही आदमी बने रहना फायदेमंद होगा। क्योंकि मशीनें जीवन का महत्व नहीं समझ सकती । और भविष्य में मुझे ऊपर की समस्या एक गंभीर रूप लेते दिख रही है।

सारांश 

ऊपर के लक्षणों को जानें और अवसाद की पहली सीढ़ी पर कदम रखने वाले को पहचानें और उसे ज्यादा ऊपर चढ़ने से बचा लें। भगवान न करें लेकिन आप पर ये लक्षण हों तो घबरायें नहीं , उसको स्वीकारें और सगे-सम्बन्धियों और जरूरत पड़े तो पागलों के डॉक्टर साहब के साथ मिलकर पछाड़े।
सादर प्रणाम
-नवीन 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मशीनें संवेदनशीलता सीख रही हैं, पर मानव?

हुण्डी (कहानी)

कला समाज की आत्मा है, जीवन्त समाज के लिए आत्मा का होना आवश्यक है।