पीपल के झरोखे से : भाग २
सादर प्रणाम !
मैं पीपल हूँ , मानव के उत्थान का अमुक गवाह , बिना थके सब इस मन की डायरी में लिखा हूँ। पिछली बार वाली आप- बीती मन से सुनने के लिये आभार। मुझे आपके समय की कद्र है और मै आपके कुछ अनमोल पहलुओं की आराधना करता हूँ।
पीढ़ी दर पीढ़ी लोग और बुद्धिमान , धनवान होते गए। हर तरफ चकाचौंध बढ़ती गयी । रंगों पर रंग चढ़ते गये। आज की हवा में एक अजीब सी गर्मी है। बाहर भी लोगों के अंदर भी। किस बात की है , सोंच रहा हूँ। मेरे यहाँ अब बैठकी करने वाले पंछी नहीं रहे। बरसात में अब उनके घोंसले मुझे हार की तरह नहीं सजाते। लेकिन मुझे खेद इस बात का है की वो बिना बताये कहीं चले गए। और अब चिट्ठी भी नहीं लिखते। इस ताप की हवा में वो संताप रहित हों , मैं मंगल कामना करता हूँ।
जमीन वाले लोगों की बात करें तो अब छत पर थपुआ-नारिया नहीं दिखता। माटी माटी की मोहताज़ हो गयी है। कच्चे घर अब पक्के बन गए हैं। अमूमन हर घर की दीवारों को घेरती हुयी एक बड़ी दीवार होती है। शायद घर को एक बार और घेर कर ज्यादा सुरक्षित महसूस करते हों ? या फिर आते जाते लोगों की सलाम-बन्दगी से बचने का वास्तु हो । हर घर अलग-अलग रंग के। मुझे रंगीन चीजें बड़ी अच्छी लगती हैं। पहले तो सब घरों की ऊँचाई एक ही होती थी। लेकिन अब ऊंचाईयों की विविधता है। कुछ घर तो मेरी आँखों में आँखे डाल सकने जितने ऊँचे हो गये हैं। मैं उनको ये मौका नहीं देता हूँ। खुद ही नजर बचा लेता हूँ।
अब बरसात कम सूखा ज्यादा हो गया है। पक्के घर जैसा लोगों का व्यवहार भी कठोर होता जा रहा है। ईंटे की दीवारें लोगों को ज़्यादा गरम करके रखती हैं। यहाँ पर सब भरा रहता है बस रिश्ता खाली-खाली रहता है। अपने में सब मगन रहते हैं। एक दुसरे से काम भर का ही मेल रखते हैं। इसलिये बरसात में भी इनके रिश्ते रेगिस्तान की तरह दिखते हैं। पहले जिन घरों के दरवाजों पर शाकाहारी का पटल लगा होता था ,आज वहाँ अण्डा मेहमान बनकर बाहर खड़ा है। अब दाल-भात से प्रोटीन पूरा नहीं होता। पहले एक मोती कमाता था और सारे घर को भर देता था। अब सारे कमाते हैं लेकिन एक मोती नहीं बना पाते। पहले सब कम पढ़ते लिखते थे लेकिन सारे मिल के रहते थे। अब बहुत ज्यादा पढ़ते हैं , लेकिन अलग रहने की चाह रखते हैं। अगर एक में रहे भी तो औपचारिक रूप से। अगर दो हाँथ केवल अपने ही जेब में रखना था तो आदमी योनि में क्यों आये भाई ? बगल में खूंटे वालों का आचरण क्यों करते हो ? पता नहीं किस स्कूल में जाते हैं। कौन से बोर्ड से पढ़ते हैं। जरूर वहीं पे इस समस्या की जड़ गड़ी होगी। क्योंकि अगर स्कूल में एक रहना न सिखाया जाता है तो कलेक्टरी पढ़ाने का क्या फ़ायदा है ?
पहले बच्चे लालटेन से पढ़ते थे, आजकल मोबाइल से पढ़ते हैं। इनके माता-पिता को लगता है कि उनका बच्चा बहुत तेज हो गया है , स्मार्ट फोन जैसा। लेकिन किताब की बजाय एक आजकल चेहरों वाली किताब ज्यादा पढ़ता है। मोबाइल में होती हैं ये। कभी तो सोचता हूँ कि बोलूं माता जी से कि असली किताब भी पढ़ने को दीजिये बच्चे को। उससे एक अच्छी और क्रमबद्ध ज्ञान की गंगा निकलती है। बच्चा नया चीज़ सोंचता है। किताब पढ़ते समय उसकी आँखे तो शब्दों पर चलती हैं लेकिन दिमाग उन सब चीज़ो का सिनेमा बना रहा होता है। परिकल्पना शक्ति का विकास होता है। नए-नए विचारों का बीज बोता है। एक जिज्ञासा होती है। फिर सोचता हूँ छोड़ो , माता-पिता जी बुरा मान जायेंगी। आजकल कौन किस बात पर बुरा मान जायेगा यह कहना मुश्किल है। एक बुरा मानना छोड़ कर हँसी-मज़ाक, आलू -प्याज सब महँगा हो गया है । एक और चीज़ , उस ज़माने में वयस्क लोगों में चश्मा लगाने का जो प्रतिशत होता था, वो औसत अब के बच्चों का हो गया है। मुझे बहुत मया बरती है , भारी भरकम झोले के दबाव के साथ एक स्थायी , आजीवन चश्मे के भार को देखकर।
पहले लोगों को रिश्तेदारों के यहाँ जाने-आने में कई दिन लग जाते थे। पैदल। अब एक डब्बे में बैठकर घंटों में पहुँच जाते है। डब्बे के अलावा एक दो गोले वाली सवारी भी होती है , इसका इस्तेमाल ज्यादा होता है। कुछ सवारी को लोग जोर लगा कर पैरों से दबाते हैं। तब आगे बढ़ती है। कौन किसको खींच रहा है ? पता नहीं। इसकी चाल धीरे होती है। कुछ सवारी तो बैठते ही चलने लगती है। इसमें पहले वाली से अलग एक ब्रूम ब्रूम की आवाज निकलती है। यहीं आदमी को खींचती है , इतना तो मैं जान गया हूँ। लेकिन बहुत तेज चलती है ये। पीछे से एक रंगीन हवा निकलती है जिससे मुझे घुटन होती है । बिना रंगीन हवा छोड़े चलने वाली भी हैं ,मेरे शहर वाले रिश्तेदार ने बताया है। बोले हैं कि शहर में भी बहुत कम ही दिखती है। रंगीन धुँआ न छोड़ने वाली के लिए रंगीन कागज़ की गड्डी ज्यादा देनी पड़ती है। तब तो गांव में आते-आते ऐसा लगता है कि मैं निकल लूँगा। अब साँसों की मात्रा ज़्यादा और गुड़वत्ता कम हो गयी है। ये तेज आने-जाने वाली बात मुझे बहुत अच्छी लगती है , समय की बचत होगी । बचे हुए समय को ये अच्छे कामों में लगायें ऐसी कामना करता हूँ।
फिर आज यहीं पर विराम देता हूँ , अगली बार फिर सुनाऊंगा कुछ नये पहलुओं को। तब तक के लिये ये लाइनें गुनगुनाइये ।
एक अनुरोध
मैं पीपल हूँ , मानव के उत्थान का अमुक गवाह , बिना थके सब इस मन की डायरी में लिखा हूँ। पिछली बार वाली आप- बीती मन से सुनने के लिये आभार। मुझे आपके समय की कद्र है और मै आपके कुछ अनमोल पहलुओं की आराधना करता हूँ।
पीढ़ी दर पीढ़ी लोग और बुद्धिमान , धनवान होते गए। हर तरफ चकाचौंध बढ़ती गयी । रंगों पर रंग चढ़ते गये। आज की हवा में एक अजीब सी गर्मी है। बाहर भी लोगों के अंदर भी। किस बात की है , सोंच रहा हूँ। मेरे यहाँ अब बैठकी करने वाले पंछी नहीं रहे। बरसात में अब उनके घोंसले मुझे हार की तरह नहीं सजाते। लेकिन मुझे खेद इस बात का है की वो बिना बताये कहीं चले गए। और अब चिट्ठी भी नहीं लिखते। इस ताप की हवा में वो संताप रहित हों , मैं मंगल कामना करता हूँ।
जमीन वाले लोगों की बात करें तो अब छत पर थपुआ-नारिया नहीं दिखता। माटी माटी की मोहताज़ हो गयी है। कच्चे घर अब पक्के बन गए हैं। अमूमन हर घर की दीवारों को घेरती हुयी एक बड़ी दीवार होती है। शायद घर को एक बार और घेर कर ज्यादा सुरक्षित महसूस करते हों ? या फिर आते जाते लोगों की सलाम-बन्दगी से बचने का वास्तु हो । हर घर अलग-अलग रंग के। मुझे रंगीन चीजें बड़ी अच्छी लगती हैं। पहले तो सब घरों की ऊँचाई एक ही होती थी। लेकिन अब ऊंचाईयों की विविधता है। कुछ घर तो मेरी आँखों में आँखे डाल सकने जितने ऊँचे हो गये हैं। मैं उनको ये मौका नहीं देता हूँ। खुद ही नजर बचा लेता हूँ।
अब बरसात कम सूखा ज्यादा हो गया है। पक्के घर जैसा लोगों का व्यवहार भी कठोर होता जा रहा है। ईंटे की दीवारें लोगों को ज़्यादा गरम करके रखती हैं। यहाँ पर सब भरा रहता है बस रिश्ता खाली-खाली रहता है। अपने में सब मगन रहते हैं। एक दुसरे से काम भर का ही मेल रखते हैं। इसलिये बरसात में भी इनके रिश्ते रेगिस्तान की तरह दिखते हैं। पहले जिन घरों के दरवाजों पर शाकाहारी का पटल लगा होता था ,आज वहाँ अण्डा मेहमान बनकर बाहर खड़ा है। अब दाल-भात से प्रोटीन पूरा नहीं होता। पहले एक मोती कमाता था और सारे घर को भर देता था। अब सारे कमाते हैं लेकिन एक मोती नहीं बना पाते। पहले सब कम पढ़ते लिखते थे लेकिन सारे मिल के रहते थे। अब बहुत ज्यादा पढ़ते हैं , लेकिन अलग रहने की चाह रखते हैं। अगर एक में रहे भी तो औपचारिक रूप से। अगर दो हाँथ केवल अपने ही जेब में रखना था तो आदमी योनि में क्यों आये भाई ? बगल में खूंटे वालों का आचरण क्यों करते हो ? पता नहीं किस स्कूल में जाते हैं। कौन से बोर्ड से पढ़ते हैं। जरूर वहीं पे इस समस्या की जड़ गड़ी होगी। क्योंकि अगर स्कूल में एक रहना न सिखाया जाता है तो कलेक्टरी पढ़ाने का क्या फ़ायदा है ?
पहले बच्चे लालटेन से पढ़ते थे, आजकल मोबाइल से पढ़ते हैं। इनके माता-पिता को लगता है कि उनका बच्चा बहुत तेज हो गया है , स्मार्ट फोन जैसा। लेकिन किताब की बजाय एक आजकल चेहरों वाली किताब ज्यादा पढ़ता है। मोबाइल में होती हैं ये। कभी तो सोचता हूँ कि बोलूं माता जी से कि असली किताब भी पढ़ने को दीजिये बच्चे को। उससे एक अच्छी और क्रमबद्ध ज्ञान की गंगा निकलती है। बच्चा नया चीज़ सोंचता है। किताब पढ़ते समय उसकी आँखे तो शब्दों पर चलती हैं लेकिन दिमाग उन सब चीज़ो का सिनेमा बना रहा होता है। परिकल्पना शक्ति का विकास होता है। नए-नए विचारों का बीज बोता है। एक जिज्ञासा होती है। फिर सोचता हूँ छोड़ो , माता-पिता जी बुरा मान जायेंगी। आजकल कौन किस बात पर बुरा मान जायेगा यह कहना मुश्किल है। एक बुरा मानना छोड़ कर हँसी-मज़ाक, आलू -प्याज सब महँगा हो गया है । एक और चीज़ , उस ज़माने में वयस्क लोगों में चश्मा लगाने का जो प्रतिशत होता था, वो औसत अब के बच्चों का हो गया है। मुझे बहुत मया बरती है , भारी भरकम झोले के दबाव के साथ एक स्थायी , आजीवन चश्मे के भार को देखकर।
पहले लोगों को रिश्तेदारों के यहाँ जाने-आने में कई दिन लग जाते थे। पैदल। अब एक डब्बे में बैठकर घंटों में पहुँच जाते है। डब्बे के अलावा एक दो गोले वाली सवारी भी होती है , इसका इस्तेमाल ज्यादा होता है। कुछ सवारी को लोग जोर लगा कर पैरों से दबाते हैं। तब आगे बढ़ती है। कौन किसको खींच रहा है ? पता नहीं। इसकी चाल धीरे होती है। कुछ सवारी तो बैठते ही चलने लगती है। इसमें पहले वाली से अलग एक ब्रूम ब्रूम की आवाज निकलती है। यहीं आदमी को खींचती है , इतना तो मैं जान गया हूँ। लेकिन बहुत तेज चलती है ये। पीछे से एक रंगीन हवा निकलती है जिससे मुझे घुटन होती है । बिना रंगीन हवा छोड़े चलने वाली भी हैं ,मेरे शहर वाले रिश्तेदार ने बताया है। बोले हैं कि शहर में भी बहुत कम ही दिखती है। रंगीन धुँआ न छोड़ने वाली के लिए रंगीन कागज़ की गड्डी ज्यादा देनी पड़ती है। तब तो गांव में आते-आते ऐसा लगता है कि मैं निकल लूँगा। अब साँसों की मात्रा ज़्यादा और गुड़वत्ता कम हो गयी है। ये तेज आने-जाने वाली बात मुझे बहुत अच्छी लगती है , समय की बचत होगी । बचे हुए समय को ये अच्छे कामों में लगायें ऐसी कामना करता हूँ।
फिर आज यहीं पर विराम देता हूँ , अगली बार फिर सुनाऊंगा कुछ नये पहलुओं को। तब तक के लिये ये लाइनें गुनगुनाइये ।
एक अनुरोध
रंग ये ऐसा क्यों चढ़ा है ? माटी का रंग माटी रहने दो ।
सतरंगी चहरे बेरंगी दिल ,अब दोनों को रंगीन बनने दो।
यदि छुपा हुआ है रावण अंतःरण में , जिह्वा जपती हो जब राम।
खोल दो अपना बजरंगी सीना, अब शीशे सा सब दिखने दो।
सतरंगी चहरे बेरंगी दिल ,अब दोनों को रंगीन बनने दो।
यदि छुपा हुआ है रावण अंतःरण में , जिह्वा जपती हो जब राम।
खोल दो अपना बजरंगी सीना, अब शीशे सा सब दिखने दो।
उड़ो गगन में इतना ऊँचा, अपनों का अम्बर खींच सके।
कहीं स्वर्ग चढ़ने की चाहत , त्रिशंकु की न रीत बने।
धरूँ धरा कि पी लूँ अम्बर , मन को इस बवण्डर में न पड़ने दो।
मानव बन आये , ग़र नहीं बन पाए ।
तो बाज बनो , कुछ नाज़ रखो।
ज़िंदे जज्बातों को मत नोचो।
मानवता! तुम गगन चूमो , स्वागत हो।
पर गिरना, कभी, तो इतना मत गिरो।
ज़मीन नहीं है गज़ दो गज़ , रज तेरे दफ़नाने को।
कहीं स्वर्ग चढ़ने की चाहत , त्रिशंकु की न रीत बने।
धरूँ धरा कि पी लूँ अम्बर , मन को इस बवण्डर में न पड़ने दो।
मानव बन आये , ग़र नहीं बन पाए ।
तो बाज बनो , कुछ नाज़ रखो।
ज़िंदे जज्बातों को मत नोचो।
मानवता! तुम गगन चूमो , स्वागत हो।
पर गिरना, कभी, तो इतना मत गिरो।
ज़मीन नहीं है गज़ दो गज़ , रज तेरे दफ़नाने को।
रिश्तों का न मोल लगाओ , काग़ज़ से मत नपने दो।
अनमोल हैं ये , अनमोल ही रहने दो।
अनमोल हैं ये , अनमोल ही रहने दो।
सादर प्रणाम
-पीपल (शब्द -नवीन)
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