पीपल के झरोखे से :भाग १

सादर प्रणाम !
    आशा करता हूँ आप सकुशल होंगे तभी पढ़ने की हिम्मत जुटा पा रहे हैं।
हमारे यहाँ पीपल का पेड़ काटने की परम्परा नहीं है , भगवान का वास माना जाता है। इनकी पूजा होती है । यह बात वैज्ञानिक रूप से भी मददगार है कि पीपल की लकड़ी के जलने से निकलने वाली गैस स्वास्थ्य के लिये अति हानिकारक होती है । परिणाम, पीपल के पेड़ों को कोई हाँथ नहीं लगाता है , और उनकी उम्र सैकड़ों साल हो जाती है । एक पेड़ अपने जीवन में मानव जीवन की अनेक पीढ़ियों का साक्षी बनता है । होने वाले बदलाओं को महसूस करता है । आदमी की विकास की गाथा का अमुक कथाकार होता है । ऐसे ही एक पेड़ की आवाज़ को शब्द देने का प्रयास कर रहा हूँ मैं । (करते करते स्याही ज्यादा खर्च हो गयी है, अग्रिम माफ़ी 🙏)


आज के लोग बहुत ख़ुश दिख रहे हैं, लेकिन ये ख़ुश तभी दिखते हैं जब सबके साथ रहते हैं। असली में ख़ुश हैं, मुझे संदेह है । क्योंकि मेरी छाया में अकेले जब छहांते हैं तो इनकी अनकही पीढ़ा, मायूसी मैं पढ़ लेता हूँ । थोड़ी देर पहले का रंगीन चेहरा जैसे श्वेत-श्याम हो जाता है। वैसे चेहरे का रंग कैसे बदल सकता है ? ये तो मेरे साथ रहने वाले गिरगिट मित्रों की कला है। यहाँ अपनी पीड़ा को मुझसे साझा करने वाले लोग भी बहुत हैं । कुछ मन में ही बोलते हैं, बहुतेरे बुदबुदा देते हैं । तब मुझे लगता है कि ये तो अभी नकली हँसी हंस रहे थे । वास्तविकता में तो ये सन्नाटे में जी रहे हैं । लेकिन मैंने इनके पूर्वजों की धड़कनें भी सुनी हैं । इनके दादा-परदादाओं की याचनाओं में बड़ी ही ईमानदारी होती थी । वो जैसे दिखते थे, वैसे ही होते थे ।इनके हृदय एकदम पारदर्शी होते, जो अंदर वही अम्बर सा हर तरफ विराजमान । दूसरों के साथ ही नहीं ख़ुद के साथ भी प्रसन्नचित्त रहते थे। मुझे केवल अपनी पीड़ा ही नहीं बताते थे। वो तो कभी कभार होता था । सामान्यतया , वो अपने पास होने वाली चीज़ों के लिये मुझे धन्यवाद देते थे ।
वैसे पहले की तुलना में मैं ख़ुद भी बहुत अकेला महसूस करता हूँ । पहले हमेशा मेरी टहनियों पर चहकहन रहती थी । कौआ, गौरैया, तोता , मैना, हमेशा उठते- बैठते रहते थे । चौपाल लगती थी । दिनभर कहीं भी रहते थे, रात को मेरे यहाँ ही बिस्तर लगाते थे । आने वाले मौसम की तैयारियाँ करते थे । बारिश से पहले सब कहीं से सूखी दूब ले आकर अपना घर बनाया करते थे । इनके घोसलों के डिज़ाइन नाना प्रकार के होते । कभी ये टोकरी जैसा होता, कभी अण्डे जैसा । कभी लालटेन जैसा तो कभी बंदर टोपी जैसा । कईयों  में तो खिड़की-जंगले भी होते थे। मुझे हमेशा जिज्ञासा होती कि ये सब आर्किटेक्चर का डिप्लोमा किये होते हैं । जरूर इनके शिक्षण संस्थान होंगे । जो इस बेहतरीन कला के हुनर को सिखाते होंगे । आने वाली बारिश के मौसम की तैयारी करना मुझे बड़ा रास आता था । समय से पहले सजग होने की बात है । फिर मूसलाधार बारिश में सपरिवार घर में रहकर अपनी मेहनत पर इतराना । जो श्रम करे उसे इतराने का हक़ तो बनता ही है । कभी-कभी तो मुझे लगता कि आदमियों के घर इतने विविधता वाले क्यों नहीं होते । ऊपर से देखो तो एक ही जैसा थपुआ-नरिया,बाँस, बल्ली। हाँ, आदमी लोग पूरी कारीगरी लकड़ी पर दिखाते थे। सपाट लकड़ी कभी मैंने नहीं देखी । हर जगह माटी रंग की ऊँची-ऊँची , मोटी-मोटी भीत होती , जो कि सामान्यतया माटी रंग की होती थी । एकदम नेचुरल । एक-आध जगह पर दीवारें अलग रंग की होती थी । मुझे लगता कि ये वाला घर शौक़ीन है ।इसको दूसरों से अलग दिखने वाला रंग अच्छा लगता होगा। तभी तो माटी को रंग दिया है। भला माटी के ऊपर कोई और रंग चढ़ सकता है क्या ? कुछ तो अधिक होगा इनके पास ।
  बरसात का मौसम मेरा पसंदीदा होता था । क्यों ? बरसाती मेंढको के प्राकृतिक ओरकेस्ट्रे का लुत्फ़ इसी मौसम में मिलता था। सब गुब्बारा फूला-फूला इतना ताल मिलाते थे कि पूछिये ही मत । इनकी बैंड पार्टी कई समूहों में बंटी होती थी। एक समूह की टरटराने की पारी ख़त्म होती तो दूसरे की शुरु। सबसे बड़ी बात तो ये है की होते सारे मेंढक ही लेकिन आवाजें  सबकी अलग। कुछ की फटे बांस जैसी , कुछ की झाल जैसी ।  डमरू जैसी भारी भरकम आवाज निकालें वाले भी होते थे। इनको सुनके मेरे डाल पर आशियाना बनाये बन्दर बड़े कंफ्यूज होते कि चलो मदारी दिखाने का समय आ गया है। विविधता भरे सुरों से ऐसा ताल मिलाते थे जैसे इनके संगीत निर्देशक नौशाद अली के गानों को सुनकर आया हो। सुरों में विविधता न हो तो प्रोग्राम कैसा लगता ? नीरस।  लेकिन इनका लगातार वादन आदमियों को चैन से सोने नहीं देता था। कुछ बच्चे मजाक में ढेला भी मार देते थे। लेकिन कुछ समय की चुप्पी के बाद ... डिमडिम शुरू। जैसे रूक जायें तो मालिक मेहनताना काट ले।
   मेरे हर्ष का एक और विषय होता था। सही में मुझे इससे हर्ष कम, संवेदना ज्यादा होती थी। मूसलाधार बारिश में मेरे ऊपर के घोंसले तो बच जाते थे, लेकिन नीचे के घरौंदे धीरे-धीरे छलनी बन जाते थे । जहाँ-तहाँ टिपीर-टिपीर शुरू हो जाता था । लोग टपकन से बचने के लिये हर घड़ी खटिया खिसकाते फिरते थे । अगर ८ -१० दिन झमाझम बारिश हो ये तो एक-दो खटिया भर जगह ही बच पाती थी । समय सारे ज़मीन पर रहने वाले एक परिवार के इकट्ठे उसी दो खटिया ज़मीन पर रहते थे । घर वाले सब एक ही जगह उठते बैठते , दुख़्खम-सुख्खम करते । कहाँ का टपकना बढ़ा, कहाँ बोरा बिछा? कौन फसल फली? कौन सी बूड़ी ? टपकते घर में सूखी जमीन की चाहत हमेशा इनके रिश्तों को नम किये रखती थी। हमेशा कुछ कम होता था लेकिन रिश्ता हरदम होता था ।इन सब में एक बहुत ही ज़रूरी विषय था, घर की माताएँ बात में शामिल तो होती थीं, लेकिन उनकी चिंता सबसे अलग होती थी । मुझे लगा कि वो मेरे बारे में सोच रही हैं । कि मैं बारिश में भींग जाऊँगा तो बीमार हो जाऊँगा । लेकिन नहीं ,उनका विषय होता था सूखी लकड़ी। अगर गीली हो गयी तो चूल्हा न जले ,बिना भोजन परिवार भूखे रह जाये। इसलिये लकड़ी की इज़्ज़त बारिश में आसमान छू लेती थी । हिफ़ाजत सोने के गहने जैसी। लकड़ी इतना घमण्ड में कि मेरी ऊँचाई को नाप जाती। बारिश में मुझे कौन पूछे ? उस ज़माने में घर में TV होना स्टेटस सिंबल नहीं था। घर में छाता होना एक सामाजिक स्तर माना जाता था। बोरा ओढ़े लोग ज्यादा दिखते थे। लेकिन उसमे भी मुझे काफी संरचनात्मकता दिखती थी। लोग मेरी पूजा करने के बजाय घर से ही ध्यान कर लेते थे। मैं भी इंद्र जैसा अहमी न बनकर उनकी मजबूरी समझ लेता था।
    उस ज़माने में बच्चे लकड़ी के डण्डों से खेलते थे। एक बड़ा डंडा लगभग आदमी के एक हाँथ के बराबर और एक छोटी डंडी , लगभग एक बित्ते की, दोनों तरफ से नुकीली। छोटी को उछालकर बड़े से टन्न से मारते थे। छोटी वाली रॉकेट जैसी सांय से जाती थी। तब मुझे लगता था कि दोनों तरफ छोटी वाली को क्यों नुकीला रखते हैं। ताकि हवा को आसानी से चीर सके। इतनी दौड़-भाग, हँसी-ठहाके लगाके बच्चे बहुत हृष्ट-पुष्ट रहते थे। मन से भी तन से भी। जिम का जमाना नहीं था वो। अगर कम जगह में खेलना पड़ जाये तो नन्ही-नन्ही थोड़ी पारदर्शी गेंदे होती थी। छुपम-छुपाई , डंडा-गोला ,और बहुत सारे खेल होते थे।
 मन तो बहुत है, और बताऊँ , लेकिन मुझे आपके समय की कद्र है। और मैं चाहता हूँ कि आप मेरी बातें मन से सुने , केवल सुनने के लिए न सुनें। जो आपसे साझा नहीं कर पाया किसी और से कर दूँगा। अगली बार जब आप आयेंगे मेरी छाँव में तब आपको इस ज़माने की हवा से मिलवाऊंगा।

पीपल महाराज भी बोल सकते है बशर्ते इनकी धड़कनों को तो पढ़िये ज़नाब ...
-सादर, काशी की कलमवाला।


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