जमने के रास्ते :गांधी या आँधी

अगर कभी आपने पशुओं के व्यवहार का अवलोकन किया हो तो इस पन्ने पर अंकित संदेश आप तक आसानी से पहुँच जायेगा । अगर नहीं कर पाये हों तो और आसानी से समझ में आ जायेगा क्योंकि तब आपने चौपाये से अधिक दोपाये मानव का अवलोकन किया होगा। चौपाये किसी के घर पर हों तो बड़े परस्पर के साथ रहते हैं।  गाय, भैंस ,बकरी इत्यादि एक ही मालिक के घर बड़े ही सौहार्द्र के साथ रहते हैं। अब अगर मालिक को इनमें से किसी भी प्रजाती का एक और लाना पड़ जाये तो बाकी सब जो पहले से ही बंधे हैं, को थोड़ा खल जाता है। मालिक से नहीं। उससे रंज होके चारे का मोहताज़ थोड़े ही नहीं होना है। वो खफ़ा होते हैं आने वाले नये सदस्य से। भले ही नया वाला खाली खूंटे पर आ गया हो , उसकी नाद अलग हो, पगहा नया आया हो । सांड़ में भाँड़ न बना हो तब भी इनको तकलीफ हो जाती है। आख़िर क्यों होती है ये दिक्कत ? ये तो पशु हैं , आप-आप ही चरने वाले हैं।  पहले से लेकर अंतिम तक अपने में ही डूबे रहते हैं  इत्यादि थोड़ा बहुत आकलन किया जा सकता है इस व्यव्हार के कारण का । नये वाले को सिंग मरना ,होंफना ,डरा कर रखना इत्यादि हरकतों से उसको नये खूंटे पर बेचैन करने का प्रयास करते हैं।
कोरिया में गाँधी जी की जीवनी नर्सरी स्तर से ही शुरू हो जाती है।

मुद्दे की बात उसकी जो सभी योनियों में सर्वश्रेष्ठ और इकलौता बुद्धिमत्ता का तमगा लिये घूमता है।  जी हाँ , मेरा मतलब हम से ही है। ऊपर वाले परिवेश में हूबहू परिस्थिति उत्पन्न होती है अगर किसी जगह कोई नया आदमी पहुँच जाय। वहाँ  पे पहले से ही गहरा खूंटा गाड़े लोग नये वाले को कड़ी जमीन पे खूंटा गड़वा देते हैं। अगर विषम परिस्थितियाँ हो जायें तो नये आदमी को लगता है कि वो खूंटा तो जमीन में धंसा रहा है लेकिन धूल के नीचे कठिनाइयों की चट्टान होती है। फलतः पत्थर पर खूँटा गड़ना पड़ जाता है । इसमें 'किसी जगह ' नामक स्थान बहुत ही व्यापक होता है। यह अपने आप से शुरू होकर ब्रम्हांड के दुसरे गोलों तक व्याप्त है। आदमी दुनिया का द्वन्द्व जीत सकता है लेकिन उससे पहले अपने अन्तर्द्वन्द्व से पार जाना पड़ता है।  जो ख़ुद को नहीं जीत पाया वो जगत-जयी तो क्या जीवन-जयी भी नहीं बन सकता। घरों की बात करें तो सबसे  सरल  उदाहरण है नयी बहू के गृह प्रवेश का। कुछ अपवाद भी होंगे, लेकिन पूरा परिवा
र नए सदस्य की परीक्षा ले रहा होता है। जैसे नये सम्बन्धो का मेटा उसी के सर पर मढ़ा हो। छोटी सी चूक और मेटा चकनाचूर। अपने घर से बाहर निकलिए और किसी नए शहर में किराये का ही मकान ले लीजिये तो होने वाली मुश्किलें।  मकान मालिक शहंशाह और किरायेदार ग़ुलाम। बाकि स्वयं समझिये।
  घर से बढ़ती दूरी के साथ-साथ खूंटा गाड़ने योग्य जमीन भी सख़्त होती जाती है। 
भारत अपने आप में ही इतना बड़ा देश है कि इसके अंदर अनेक देशों की विविधतायें  समाहित है। दक्षिण से उत्तर पूरब से पश्चिम , एक छोर का आदमी अगर दुसरे छोर पर चला जाये तो अपने आपको विदेश में ही महसूस करेगा। और वहाँ पर बसर करने में उतनी ही ज्यादा कसर। केवल टिकट से यात्रा तक तो फिर भी ठीक है। अपने देश में हैं। अगर टिकट के साथ-साथ पारपत्र  भी लग जाये तब तो घोर कसरत की पराकाष्ठा समझिये । वहाँ पर सब कुछ अलग ,बोल ,बाल, खाल, चाल ,रूमाल, सब कुछ । कोरिया में तो इस विषय पे एक उपन्यास है, जिसमे एक दर्जा ५ के एक बच्चे को उसके पिता जी के  ट्रांसफर की वजह से नये स्कूल में जाना पड़ता है। उसकी स्थिति देख के मुझे लगा कि लेखक महोदय ने पाँचवी कक्षा के बच्चे को बड़ा ही झेला दिया है।
ये वाली किताब मेरे भाषा सीखने के माध्यमों में से एक है। 
       उपर्युक्त समस्त परिस्थितियों में खूंटा गाड़ने का रास्ता क्या होना चाहिये ? झटके से ढरररररर्र से ड्रिलिंग करके जिससे पत्थरों के साथ साथ बगल की माटी में भी चिरकालीन घाव हो जाये। पत्थर पर तेज टक्कर से आग लग जाय।  हाँथ तो मिले लेकिन साथ न मिले। दाँत दिखे किन्तु दिल न खिले। नजरें तो मिलें लेकिन नजदीकी न मिले। ऐसा खूंटा बहुत आसानी से हुलस जाता है। और एक-दो झटके में उखड़ के फेंका जाता है। अगर अंगद का पैर जमाना है तो गांधी जी वाला खूंटा होना चाहिये। धैर्य के साथ ,धीरे धीरे। याद रहे कि मनुष्य का स्थायी  स्वाभाव प्रेम का  है , कटुता तो क्षणिक, बेऔकात  है। अतः पत्थरों की मार पड़े तो भी मुस्कुराकर सहें । मोहब्बत से पत्थर इतना नम कर दें की पाषाण भी  माटी-माटी हो जाये। और आपके खूँटे को और मजबूती से जकड़ने वाली मिट्टी बन सके। वैसे गांधी जी ने भारत को दिशा तो दी ही,  लेकिन उनके संघर्ष करने की आदत भारत से बहार पड़ी। दक्षिण अफ़्रीका की सख़्त जमीनों में अपने लोगो के खूंटे गाड़ते-गाड़ते।
अब जब हम दूसरे ग्रहों 🚀पर जीवन तलाश रहे हैं तो कसर की पराकाष्ठा का भी इम्तिहान हो जायेगा। अगर वहाँ जीवन रहेगा तो जीव जरूर होंगे पहले से डीह बन कर। जो लोग जायें वो इस पत्र को गाँठ बाँध कर जायें । गाँधी जी वाला मंत्र वहाँ भी सफल होगा। क्योंकि वहाँ पर तूफानी संघर्ष का विकल्प ही नहीं होगा।
यह विषय हर जगह विद्यमान है। लोग जानते हैं, जूझते भी हैं ,बस उसे प्रकृति के नियम के रूप में स्वीकार करने की जुर्रत नहीं जुटा पाते हैं। यह व्यवहार प्राकृतिक है, इसीलिए मैंने ऊपर अपने पूर्वजों की श्रेणी से किया था। यह पढ़ने के बाद मुझे आशा है कि किसी भी नयी मिट्टी में आप खूँटा गाड़ने में और अधिक सामर्थ्यवान हो जायेंगे।
-लगे रहिये  !
-नवीन 

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