रेलीय अखाड़ा , रुमाली दाव !
नमस्ते !
कोरिया का सार्वजनिक यातायात तंत्र बेहद ही अच्छा और उपयोगी है।एक तरफ जहाँ मेट्रो ट्रेनें इस तंत्र की रीढ़ की हड्डी हैं , वहीं पर बसें भी कोने-कोने तक लोगों को ढोने वाली पसलियाँ । मेट्रो और बसों का आपस में करार है की वो अपने यात्रियों की मिलकर सेवा करेंगे। कुल मिलाकर एक यात्रा का एक ही टिकट काटेंगे । सीओल मेट्रो विश्व की चुनिंदा और बेहतरीन मेट्रो सेवाओं में से एक है। रद्द होना , देर से आना इत्यादि आलसी और लापरवाह काम नहीं करती है। अब बात कि रेल में कितनी भीड़ होती है ? तो अगर मैं ये बोलूँ कि मेट्रो की भीड़ पीक टाइम पे उतनी ही होती है, जितनी की हमारे यहाँ दीवाली में स्लीपर क्लास में होती है, तो थोड़ी सी अतिशयोक्ति हो जायेगी। ये पीक टाइम होता है सुबह और शाम ऑफिस वाला। कम समयांतराल पर ट्रेनें होना भी कम भीड़ का कारण है । भीड़ कितनी ही क्यों न हो , लोग कतार में ही चढ़ते और उतरते हैं। कभी भी एक-दूसरे को धक्का देते हुए मैंने किसी को नहीं देखा।
मेरा ऑफिस घर से ४ स्टेशन बाद पड़ता है। ऑफिस जाने के लिए मैं कभी सीट पाने की कोशिश नहीं करता हूँ, आते समय अगर खाली मिला तो कभी-कभार लाभ ले लेता हूँ। वो भी एकदम रिलैक्स मोड में, अगर बिना मेहनत किये मिल जाये तब । वापस आते समय अक्सर मेरे एक कोरियन दोस्त साथ में रहते हैं। दोस्त का सेन्स ऑफ़ ह्यूमर कोरिया में मेरे जानने वाले अच्छे मजाकिये लोगों में से एक है।
एक दिन शाम की बात है। ट्रेन के इंतजार में लाइन में खड़े थे मैं और मेरे दोस्त। कुछ चौथे -पांचवे नंबर पर। ट्रेन आयी। जैसे ही दरवाजा खुला मित्र ने चटकवाही करते हुये दन्न से सीट पकड़ ली । मेरा तो इरादा था नहीं , तो मैंने प्रयास भी नहीं किया। और खड़ा ही रह गया। सीट पर बैठने के बाद दोस्त ने मुस्कुराते हुए बोला -
तुम्हे सीट पाने के कौशल में सुधार करने की जरूर है।
मैं भी मुस्कुरा के मन-ही-मन उनकी बात में हामी भर दिया। और मेरे फ़्लैश बैक में आ गया अपने यहाँ की अनारक्षित श्रेणी की यात्रा।
अगर कभी जेब की तंगी हो या समय का आभाव, हर मध्यम वर्गीय आदमी अनारक्षित श्रेणी में सफर कर ही लेता है। इस श्रेणी में लोगों की कोई सीमा नहीं होती है। त्यौहार के समय में तो आकाश-पाताल एक ही नज़र आता है डिब्बे के अंदर का। अगर आप किसी बीच वाले स्टेशन से चढ़ रहे हैं तो सीट पाना तो भूल जाइये , सीट तक पहुँच कर सीट देखना भी नसीब नहीं होता । इस कदर भाव में रहती है सीट मानिये कोई फिल्मी सितारा बॉडी गार्ड भाइयों से घिरा हो। अंदर फुल है ऐसा चढ़ने पर ही बोल देते हैं। जितनी जगह में जो जहाँ खड़ा है , बैठा है, उसकी उस यात्रा की जागीर हो जाती है । अगर आप खुशकिस्मत हैं जब आपको वहाँ से चढ़ना है जहाँ से ट्रेन बनकर चलती है। लाइन लगी रहती है। धैर्य की धारा को ट्रेन के इंतजार में बांधना बड़ा ही मुश्किल होता है। ट्रेन धीरे-धीरे भाव खाते हुये आती है। कतार से क्रमवद्ध लोग चढ़ना शुरू कर दिये हैं । पलक झपकते ही कतार का समंदर अब तक कई छोटी-छोटी नदियों में बट चुका होता है। लोग अंदर जाते हैं। अपनी सीट पर कब्ज़ा पाके बड़ा ही सुकून महसूस करते हैं, आज की जंग तो पूरी हुयी वाला एहसास । तभी पीछे से एक सज्जन आते हैं और अपना रूमाल सीट पर से उठाते हुए बोलते हैं -खाली करिये ये मेरी सीट है। ये होता है सीट पाने का असली कौशल , रूमाल डालके। वैसे मैं कभी रूमाल डालके सीट नहीं कब्जिया पाया हूँ। लेकिन कोरिया में अगर विकल्प होता तो मुझे भरोसा है कि मैं इसमें औव्वल आऊंगा।
चलते-चलते मेरा आपसे विनम्र अनुरोध है कि इस पन्ने से उत्तेजित हो कर घर के बच्चों को बेवजह अनारक्षित वाला टिकट मत पकड़ा दीजियेगा। और भी बहुत सारे रास्ते हैं जीवन के दंगल की तैयारी करने के ।
फिर पढ़िएगा...
-नवीन
कोरिया का सार्वजनिक यातायात तंत्र बेहद ही अच्छा और उपयोगी है।एक तरफ जहाँ मेट्रो ट्रेनें इस तंत्र की रीढ़ की हड्डी हैं , वहीं पर बसें भी कोने-कोने तक लोगों को ढोने वाली पसलियाँ । मेट्रो और बसों का आपस में करार है की वो अपने यात्रियों की मिलकर सेवा करेंगे। कुल मिलाकर एक यात्रा का एक ही टिकट काटेंगे । सीओल मेट्रो विश्व की चुनिंदा और बेहतरीन मेट्रो सेवाओं में से एक है। रद्द होना , देर से आना इत्यादि आलसी और लापरवाह काम नहीं करती है। अब बात कि रेल में कितनी भीड़ होती है ? तो अगर मैं ये बोलूँ कि मेट्रो की भीड़ पीक टाइम पे उतनी ही होती है, जितनी की हमारे यहाँ दीवाली में स्लीपर क्लास में होती है, तो थोड़ी सी अतिशयोक्ति हो जायेगी। ये पीक टाइम होता है सुबह और शाम ऑफिस वाला। कम समयांतराल पर ट्रेनें होना भी कम भीड़ का कारण है । भीड़ कितनी ही क्यों न हो , लोग कतार में ही चढ़ते और उतरते हैं। कभी भी एक-दूसरे को धक्का देते हुए मैंने किसी को नहीं देखा।
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Subway Station in Seoul. Please don`t misunderstand the crowd. Picture is deliberately taken to avoid privacy breaches. |
एक दिन शाम की बात है। ट्रेन के इंतजार में लाइन में खड़े थे मैं और मेरे दोस्त। कुछ चौथे -पांचवे नंबर पर। ट्रेन आयी। जैसे ही दरवाजा खुला मित्र ने चटकवाही करते हुये दन्न से सीट पकड़ ली । मेरा तो इरादा था नहीं , तो मैंने प्रयास भी नहीं किया। और खड़ा ही रह गया। सीट पर बैठने के बाद दोस्त ने मुस्कुराते हुए बोला -
तुम्हे सीट पाने के कौशल में सुधार करने की जरूर है।
मैं भी मुस्कुरा के मन-ही-मन उनकी बात में हामी भर दिया। और मेरे फ़्लैश बैक में आ गया अपने यहाँ की अनारक्षित श्रेणी की यात्रा।
अगर कभी जेब की तंगी हो या समय का आभाव, हर मध्यम वर्गीय आदमी अनारक्षित श्रेणी में सफर कर ही लेता है। इस श्रेणी में लोगों की कोई सीमा नहीं होती है। त्यौहार के समय में तो आकाश-पाताल एक ही नज़र आता है डिब्बे के अंदर का। अगर आप किसी बीच वाले स्टेशन से चढ़ रहे हैं तो सीट पाना तो भूल जाइये , सीट तक पहुँच कर सीट देखना भी नसीब नहीं होता । इस कदर भाव में रहती है सीट मानिये कोई फिल्मी सितारा बॉडी गार्ड भाइयों से घिरा हो। अंदर फुल है ऐसा चढ़ने पर ही बोल देते हैं। जितनी जगह में जो जहाँ खड़ा है , बैठा है, उसकी उस यात्रा की जागीर हो जाती है । अगर आप खुशकिस्मत हैं जब आपको वहाँ से चढ़ना है जहाँ से ट्रेन बनकर चलती है। लाइन लगी रहती है। धैर्य की धारा को ट्रेन के इंतजार में बांधना बड़ा ही मुश्किल होता है। ट्रेन धीरे-धीरे भाव खाते हुये आती है। कतार से क्रमवद्ध लोग चढ़ना शुरू कर दिये हैं । पलक झपकते ही कतार का समंदर अब तक कई छोटी-छोटी नदियों में बट चुका होता है। लोग अंदर जाते हैं। अपनी सीट पर कब्ज़ा पाके बड़ा ही सुकून महसूस करते हैं, आज की जंग तो पूरी हुयी वाला एहसास । तभी पीछे से एक सज्जन आते हैं और अपना रूमाल सीट पर से उठाते हुए बोलते हैं -खाली करिये ये मेरी सीट है। ये होता है सीट पाने का असली कौशल , रूमाल डालके। वैसे मैं कभी रूमाल डालके सीट नहीं कब्जिया पाया हूँ। लेकिन कोरिया में अगर विकल्प होता तो मुझे भरोसा है कि मैं इसमें औव्वल आऊंगा।
चलते-चलते मेरा आपसे विनम्र अनुरोध है कि इस पन्ने से उत्तेजित हो कर घर के बच्चों को बेवजह अनारक्षित वाला टिकट मत पकड़ा दीजियेगा। और भी बहुत सारे रास्ते हैं जीवन के दंगल की तैयारी करने के ।
फिर पढ़िएगा...
-नवीन
Diwali k time pr general class me kiye gye Safar yaad aa gye. Rumali daav to kabhi nhi Khel paye pr train se utarne k baad ka sukun to....
जवाब देंहटाएंDiwali k time pr general class me kiye gye Safar yaad aa gye. Rumali daav to kabhi nhi Khel paye pr train se utarne k baad ka sukun to....
जवाब देंहटाएंहाहा, पढ़ने के लिये बहुत आभार 🙏
हटाएंPerfect explanation
जवाब देंहटाएंधन्यवाद भैया 🙏
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