हुण्डी (कहानी)

फलते-फूलते शहर का वह मन्दिर। उस मन्दिर में कोई लक्ष्मी जी की मूर्ति नहीं थी, परन्तु उसमें लक्ष्मी का जैसे साक्षात वास था। किसी धार्मिक स्थल की संपन्नता उसके आस-पास बसे लोगों की धनाढ्यता पर निर्भर करता है। इससे अधिक उन लोगों की उदारता मायने रखती है। आए दिन मन्दिर में सोने-चाँदी के चढ़ावे चढ़ते थे। मन्दिर में माथा टेकने की जगह से अधिक हुण्डियाँ ( दानपात्र) विराजमान थीं। आदमी अगर दो-चार हुण्डियों को अनदेखा कर भी दे, बिना इनमें कुछ दान किए मन्दिर की चौखट पार नहीं कर सकता था। जैसे हुण्डियाँ बोल रही हों कि अब बहुत अनदेखी कर लिये, प्रभु सब-कुछ देख रहे हैं। इस आध्यात्मिक अपराध बोध की अनदेखी भला कोई कैसे कर सकता था! ईश्वर लोगों की मन्नतें पूरी करते और लोग मन्दिर की हुण्डी स्वेच्छा से भरते जाते। मन्दिर संस्कृति का भी केन्द्र था। समय-समय पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन करवाता था। इन कार्यक्रमों के टिकट लगते थे। इन आयोजनों से मन्दिर के खज़ाने में रातों-रात बढ़ोत्तरी होती थी। आते-जाते लोग हुण्डी में अपनी श्रद्धा से जो दान देते, वो तो अलग से बोनस! मन्दिर में जगह-जगह दान करने की विभिन्न विधिय...