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“महाभारत में ही गीता निकलती है।”

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 “महाभारत में ही गीता निकलती है” भागदौड़ के इस दौर में ‘बहुत व्यस्त हूँ’ वाली लाइन अक़्सर सुनने को मिलती हैं। इस व्यस्तता के पीछे कई कारण हो सकते हैं। महत्त्वपूर्ण ये है कि ऊर्जा की खपत बनाने में हो रही है, या बिगाड़ने में। मुझे ज्ञानपीठ प्रकाशन के  आदरणीय श्री दिनेश जी ने बड़े आकर्षक ढंग से व्यस्तता के कारणों को समझाया था। “हर आदमी या तो मस्त है या पस्त है। मस्त है-बनाने या बिगाड़ने में; पस्त है- ख़ुद को सम्भालने में।” इन तमाम व्यस्तताओं को पटखनी देता हुआ आदमी जीवन के उस पड़ाव पे पहुँचता है, जहाँ उसे आराम करने की सूझती है। औरों के लिए जीवन न्योछावर कर अन्तिम दौर में वो स्वार्थी बनाने की क़ोशिश करता है कि बची-कुची साँसें वह स्वयं के लिए लेगा। इस वह वो अपने पीछे की उपलब्धियों से इतना संतुष्ट हो जाता है कि आगे कुछ पाने की इच्छा नहीं रह जाती। ऐसे में एक उदाहरण मुझे अपवाद स्वरूप मिलते हैं आदरणीय डॉ. राम सुधार सिंह, हिन्दी विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष, उदय प्रताप कॉलेज, वाराणसी। सर जी ७० से अधिक बसंत देख चुके हैं। वे काग़ज़ पे तो अवकाश प्राप्त हैं, परन्तु अवकाश प्राप्ति की नई परिभाषा लिख रहे

तेरह साल बाद आप अपने बच्चे में क्या ढूंढ़ेंगे ? (अमेरिकी संस्मरण)

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 तेरह साल बाद आप अपने पाँच साल के बच्चे में क्या ढूंढ़ेंगे ?(अमेरिकी संस्मरण) छोटी बेटी का दर्ज़ा बड़ा हो गया था। अब वो प्री-स्कूल से किंडरगार्टन में जाने वाली थीं । दर्ज़े के साथ-साथ स्कूल भी काफ़ी बड़ा हो चला था। अमेरिका में प्राइमरी स्कूलों में कक्षाएँ किंडरगार्टन से लेकर दर्ज़ा पाँच तक की होती हैं। नए स्कूल से ओरिएंटेशन का निमंत्रण था। स्कूल के सभी अध्यापकों का अभिभावकों से प्रथम परिचय का दिन। प्रधानाचार्य महोदय जी उस परिचय शो के संचालक थे। उनकी उम्र तक़रीबन साठ साल पार होगी। बाल चमकते, जैसे चाँदी। चेहरे पे तेज, जैसे जलती बाती। उम्र भले ही चढ़ गई हो, लेकिन उनका जज़्बा…छः साल के बच्चों जैसा। शायद उनकी ऊर्जा का राज़ “ A man is known by the company he/she keeps” की लाइन में छुपा हो। बच्चों की चंचलता, उत्सुकता के बीच रहते-रहते मानिए ये गुण प्रधानाचार्य महोदय के अंदर समाहित हो गये हों। अपना परिचय देने के बाद उन्होंने वहाँ उपस्थित सभी अभिभावकों से एक सवाल पूछा,” आपका बच्चा/बच्ची लगभग तेरह साल बाद यूनिवर्सिटी में पढ़ने जाएगा/जाएगी। यूनिवर्सिटी में जाने के लिए आप बच्चे में क्या-क्या खूबिया

पिता (कविता)

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छायांकन: काशिका पिता के कन्धों का भार जानने को सीढ़ी चढ़नी पड़ती है, पौधे से बाग़बान तक की एक पीढ़ी चढ़नी पड़ती है। पिता के जूते की कोई नाप नहीं हो सकती है, मूक संघर्षों की कोई छाप नहीं हो सकती है। जिस उँगली को पकड़कर चलना पड़ता है। उसका मर्म समझने उँगली पकड़ाकर चलना पड़ता है। ये छाता बच्चों को धूप-बारिश से बचाता है, कहीं साथ छूटे न जाए, बीमा भी करवाता है। पिता के छाते का कपड़ा भले ही कट-फट जाए, मज़ाल है कि सुरक्षा की कमानी ज़रा भी हट जाए। जीवन काग़ज़ की नावों का खेल नहीं है, यह दरिया बस मीठी यादों का मेल नहीं है। इसे पार करने लहरों से टकराना पड़ता है, पिता को बच्चे को माँझी बनाना पड़ता है। -काशी की क़लम