“महाभारत में ही गीता निकलती है।”

“महाभारत में ही गीता निकलती है” भागदौड़ के इस दौर में ‘बहुत व्यस्त हूँ’ वाली लाइन अक़्सर सुनने को मिलती हैं। इस व्यस्तता के पीछे कई कारण हो सकते हैं। महत्त्वपूर्ण ये है कि ऊर्जा की खपत बनाने में हो रही है, या बिगाड़ने में। मुझे ज्ञानपीठ प्रकाशन के आदरणीय श्री दिनेश जी ने बड़े आकर्षक ढंग से व्यस्तता के कारणों को समझाया था। “हर आदमी या तो मस्त है या पस्त है। मस्त है-बनाने या बिगाड़ने में; पस्त है- ख़ुद को सम्भालने में।” इन तमाम व्यस्तताओं को पटखनी देता हुआ आदमी जीवन के उस पड़ाव पे पहुँचता है, जहाँ उसे आराम करने की सूझती है। औरों के लिए जीवन न्योछावर कर अन्तिम दौर में वो स्वार्थी बनाने की क़ोशिश करता है कि बची-कुची साँसें वह स्वयं के लिए लेगा। इस वह वो अपने पीछे की उपलब्धियों से इतना संतुष्ट हो जाता है कि आगे कुछ पाने की इच्छा नहीं रह जाती। ऐसे में एक उदाहरण मुझे अपवाद स्वरूप मिलते हैं आदरणीय डॉ. राम सुधार सिंह, हिन्दी विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष, उदय प्रताप कॉलेज, वाराणसी। सर जी ७० से अधिक बसंत देख चुके हैं। वे काग़ज़ पे तो अवकाश प्राप्त हैं, परन्तु अवकाश प्राप्ति की नई परिभाष...