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बर्फ ही बर्फ (कविता)

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(बर्फ़बारी का आलम) दिनों दिन बर्फ़ गिरे जा रही है पारा बेलगाम है वो खाई खोदता जा रहा है। बर्फ़ ने सबको उनके घरों में नज़रबन्द कर दिया है और बाहर लगा दिया है हवा को पहरे पे। बाहर की सर्दी का हाल ही क्या पूछना!  कुशल है मानव हूँ कि घर गरम है। मन में बैठी सर्दी से मन अधिक व्याकुल है। ये आसमान को किस बात का शोक है! जो उसका दिल जमकर बर्फ़ हो गया है। उसके आँसू बर्फ़ होकर गिर रहे हैं सूरज से यह पीड़ा देखी नहीं जा रही है और उसने अपना चेहरा ढँक लिया है। गिरते इन आँसुओं का अंजाम अच्छा नहीं है। इन बर्फ़ीले आँसुओं पे हवा क़हर बरसा रही है। जिस धरती पे ये आँसू जम जाना चाहते हैं जिसके साथ मिलकर फिर एक हो जाना चाहते हैं वो धरती, वो साथी उनको नसीब नहीं हो रहे हैं। हवा इनको तिल-तिल करके दूर उड़ाए जा रही है कोई यहाँ, कोई वहाँ, कोई इधर, उधर, हर ओर मानो हवा ने ठान लिया हो कि इन ठण्डे आँसुओं को बता दे कि तुम सब मेरी मर्ज़ी के ग़ुलाम हो! लगातार बर्फ़बारी ने जो सफ़ेदी पोती है धरती के मुख पर कि सब श्वेत श्वेत हो गया है सफ़ेद कभी छिपाना नहीं जानता, इसपे दाग़ बड़े जल्दी खिल जाते हैं। सफ़ेदी अधिक दिन तक झेली नहीं

जिनको काँधे नहीं होते रोने को उनके आँसू नहीं होते खोने को।

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जिनको काँधे नहीं होते रोने को उनके आँसू नहीं होते खोने को। ज़माना पत्त्थर कहता  ज्वालामुखी जमा जिसे बनाने को। एहसान सख़्त पहाड़ों का जो मौक़ा नहीं दिया सुस्ताने को। काँटे कितने ही मिले पर आतुर रहा वो फूल बरसाने को। ख़ुदा बंजर ज़मीं फैलाता गया और पीछे खड़ा रहा फसल उगवाने को। -काशी की क़लम