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उम्मीद आपसे क्यूँ रखूँ, जब रखता नहीं अपने आपसे

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ताला लगा है ज़बान पे डरता हूँ इस हालात से न जाने कौन बुरा मान जाए मेरी किस बात से! दुनिया के खेल में सबसे मिलना ज़रा एहतियात से कोई माहिर खेल न जाए कहीं किसी के जज़्बात से! उम्मीद आपसे क्यूँ रखूँ, जब रखता नहीं अपने आपसे मेरा भी भरोसा क्या बदल जाऊँ कौन-सी बरसात से! ये बदलते दस्तूरों  का दौर है चाँद उदास हो तो हो अब सूरज का मन बहल रहा है दिन की बारात से! है एक ज़िंदगी ‘काशी’ इसे अपने ही अल्फ़ाज़ दे कभी मुक़म्मल होती नहीं कोई कहानी ख़ैरात से। -काशी की क़लम

ऊँचाई की क़ीमत गहराई न हो

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ऊँचाई की क़ीमत गहराई न हो ऊँचाई पे इतनी महँगाई न हो। जो कमतर करे इंसानियत को ऐसी किसी चीज़ से वफ़ाई न हो। क़द गिरे किसी का मुझसे ज़ेहन में इतनी ऊँचाई न हो। अपने अकेले की ही देखूँ उस तरक़्क़ी पे रौशनाई न हो। ‘काशी’ अपनी गंगा में डूबो ऐसा कि भीड़ को फिर तनहाई न हो। -काशी की क़लम