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समंदर

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चला तो बनकर मैं कोमल नदी था,  ज़माने में बहकर मैं पानी खारा हुआ, पोंछकर ग़ैरों के ग़म मैं पीता गया,  मेरा पानी अब कोई क्यों पूछे,  मैं तो समंदर बेचारा हुआ।१। बहुत से बंजरों को आबाद मैंने किया, बहुत से सपनों को साकार मैंने किया, आज भी उमड़ता हूँ मैं सबकी सिसकियों पर, लौट जाता हूँ किनारों के दिलों में उतरकर,  वो कहते हैं-मैं तो समंदर नकारा हुआ।२। नहीं याद हो, तो पूछो दरारों से, उन पावों के ठोकरों से, पूछो हर राह पर मिली उन अनगिनत कठिनाइयों से, यक़ीन नहीं हो, तो पूछो मेरे अंदर के पर्वतों से,  मैं तो सबके सड़कों के कंकड़ बहाता चला था, फिर भी मैं तो समंदर हर सड़क का मारा हुआ।३। ख़ुदा न करे, ज़िंदगी में ग़र तुम्हारे कभी सूखा पड़े, ख़ुदा न करे, आ जाए बाढ़  सिवानों में खड़े, कोसाते हो, तो भी मेरा ज़िक्र करना, मना लूँगा, बादलों में मेरी पहुँच बहुत है,  क्योंकि मैं तो समंदर आदतों से आवारा हुआ।४। दूर से कोसना सही फ़ितरत नहीं, जानो मुझे, आओ मेरी ख़िदमद में यहीं, डूबकर मेरी आँखों की गहराइयों में तो झांको, धरा पे जब कुछ भी नहीं था, मिलो उन यादों को, मौन को कुछ नाम दो, पर अभी भी समंदर नहीं भुलक्कड़ ह

'गूँज दबते स्वरों की'- नब्ज़

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 'लिखकर ले लो' .... ये वाला डायलॉग अक्सर सुनने को मिलता है। मगर यही बात वाक़ई में अगर लिखनी पड़ जाए, तो आदमी हजार बार सोचता है। कलम काँप जाती है, और लिखने की बात को मज़ाक में उड़ा देता है। क्योंकि उसको पता होता है, उसके लिखे का भूत सालों-साल तक पीछा नहीं छोड़ेगा।  बात समझदार आदमी की। यदि वह बोलते वक़्त शब्दों को किराना वाले तराजू में तौलता है, तो उसी बात को लिखते समय सोनार के तराजू में। कलम रत्ती भर भी इधर-उधर न होने पाए, इसका बाक़ायदा ध्यान रखता है।  ऐसे में गूँज दबते स्वरों की बेबाक़ समीक्षा कैसे मिले? तो बात-चीत में मैं कुछ काशी की कलम के काम का पकड़ने का प्रयास कर रहा हूँ। इसी कड़ी में घनिष्ठ मित्र श्री योगेश्वर सिंह जी के सधे हुए शब्दगण , "ऐसा लगा नहीं कि यह आपकी पहली किताब है!"   गूँज दबते स्वरों की (कहानी संग्रह) । भारतीय ज्ञानपीठ AMAZON  I  FLIPKART  

दावत पे दीया (लघुकथा)

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  ब्रम्हाण्ड ने एक रात सारे प्रकाश देने वालों को दावत का न्यौता दिया। सूरज ने दावत में अकेले पड़ जाने की वजह से जाना उचित न समझा। और अगर वो दावत खाने चला जाता, तो उसका प्रकाश का काम कौन देखता? चंद्रमा, धरती का और दूसरे ग्रहों के भी पहुँचे। सितारे झुण्ड-के-झुण्ड गए। पृथ्वी ने अपनी रश्मि पुंजों को भी भेजा, जिनकी अगुआई पर्यावरण की रक्षा के भार से थके हुए LED और CFL बल्बों ने की।  ट्यूबलाइट की पूछ किसी ज़माने में काफ़ी हुआ करती थी। उसकी जगह इन दोनों अगुओं ने छीन ली। ख़ैर संतोष बस इतना था कि अगुआई की कुर्सी चलायमान थी-आज उनकी, तो कल पर्यावरण मित्रता में भले किसी और की।  १०० वाट की सुनहरी रोशनी वाले, पर्वावरण पे बोझ बने चुके बल्ब भी बिना पृथ्वी के कहे ही तैयार हो चले। शादी-ब्याह में जगमग करने वाली झिलमिल लाइटें भी फुदक-फुदककर शामिल हुईं। पृथ्वी ने कष्टकारी हैलोजन बल्बों को जाने से सख़्त मना कर रखा था। लेकिन दावत का नाम सुनते, वे भी दबे पाँव काफ़िले में हो लिये। आख़िरकार कड़कड़ाती सर्दी में उनकी भी कमर टूट जाती है। सब चले गए, लेकिन पृथ्वी को अपनी पुरातन मित्र नज़र नहीं आ रहा था।। दीया, अँधेरे से तो लड