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पीपल के झरोखे से : भाग २

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सादर प्रणाम ! मैं पीपल हूँ , मानव के उत्थान का अमुक गवाह , बिना थके सब इस मन की डायरी में लिखा हूँ। पिछली बार वाली आप- बीती मन से सुनने के लिये आभार। मुझे आपके समय की कद्र है और मै आपके कुछ अनमोल पहलुओं की आराधना करता हूँ।   पीढ़ी दर पीढ़ी लोग और बुद्धिमान , धनवान होते गए। हर तरफ चकाचौंध बढ़ती गयी । रंगों पर रंग चढ़ते गये। आज की हवा में एक अजीब सी गर्मी है। बाहर भी लोगों के अंदर भी। किस बात की है , सोंच  रहा हूँ।  मेरे यहाँ अब बैठकी करने वाले पंछी नहीं रहे। बरसात में अब उनके घोंसले मुझे हार की तरह नहीं सजाते। लेकिन मुझे खेद इस बात का है की वो बिना बताये कहीं चले गए। और अब चिट्ठी भी नहीं लिखते। इस ताप की हवा में वो संताप रहित हों  , मैं मंगल कामना करता हूँ।   जमीन वाले लोगों की बात करें तो अब छत पर थपुआ-नारिया नहीं दिखता। माटी माटी की मोहताज़ हो गयी है। कच्चे घर अब पक्के बन गए हैं। अमूमन हर घर की दीवारों को घेरती हुयी एक बड़ी दीवार होती है। शायद घर को एक बार और घेर कर ज्यादा सुरक्षित महसूस करते हों ? या फिर आते जाते लोगों की सलाम-बन्दगी से बचने का वास्तु हो ।  हर घर अलग-अलग रंग के।

मान लेंगे तुम्हारे गिले शिकवे सारे

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सादर प्रणाम , आज बात थोड़ी प्रेम की। कविता से पहले उसकी पृष्ठ भूमि झट से बता देता हूँ। गहरे प्रेम में धागे थोड़े खींच से गए हैं। लड़की को लड़का रास नहीं आ रहा है और वह बहुत नाराज़ है। लड़का पुरज़ोर कोशिश कर रहा है मनाने की । वापस बुलाने की । श्रृंगार रस के दरिया में उतरने का प्रयास किया हूँ , लेकिन किनारे पर खड़ा मेर दोस्त वीर रस, ज्यादा गहराई में जाने से रोक रहा है। ...  मान लेंगे  तुम्हारे , गीले-शिक़वे सारे।  जो' उसी' प्यार का तुम वादा करो।  लाओ , कर दें दस्तख़त तुम्हारे कोरे कागज़ पर।  जो साफ़ दिल से लिखने का इरादा  करो।  छोड़ देंगे तुम्हारे सपनों में आना, जो दिन में हमें भूल जाने का वादा करो।  मेरी यादों की दरिया पार कर , किसी और किनारे की सोचो जब कभी , मेरी प्यार की लहरों से बच कर रहना जरा , मेरे किनारे तुमको झोंक दे न कहीं।   चले जायेंगे तेरे जेहन -जहाँ से,जो पलट के न देखने की तुम हिम्मत रखो।  ताकेंगे नहीं कभी उस खिड़की पर हम दोबारा , जो पन्नो के सूखे गुलाबों को लौटाने का इरादा करो।  अगर जलाने की ज़ुर्रत कर सको मेरे प्रेम पत्रों

अतिलघु कथा : मंज़िल की जल्दी

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एक आदमी गाड़ी चला रहा था । बहुत जल्दी में था ।  जहाँ थोड़ा सम्हल के चलाना था , अनदेखा करता गया । ब्रेक कम लगाया और ऐक्सेलरेटर ज़्यादा दबाया ।  कुछ चीज़ें गाड़ी के नीचे भी आ गयी , कोई परवाह न की ।  मंज़िल की चकाचौंध देख उसको बहुत ख़ुशी हुयी ।  इतना तेज़ वहाँ कोई नहीं पहुँच सका था।  ख़ुद की पीठ ठोकी ।  समय बीतता गया। जब उसने पलट के देखा : गाड़ी का मॉडल  : स्मार्ट कलर की धूर्त नम्बर - पहले मैं फिर मेरा जो ईंधन जला - रिश्ता जो कुचले गये-जज़्बात उसने सोचा : मंज़िल की मदिरा में, क्यूँ ऐसा हुआ सराबोर। अरघ दिया जज़्बातों का, ख़ुद्दारी भी आया बोर। वह वापस जाना चाहता था, लेकिन समय का पहिया आगे चला गया था। (केवल बीमा के भरोसे न रहें ,तेज़ी में दूसरों की भी सुरक्षा का पूरा ध्यान रखें ।)