पीपल के झरोखे से : भाग २

सादर प्रणाम ! मैं पीपल हूँ , मानव के उत्थान का अमुक गवाह , बिना थके सब इस मन की डायरी में लिखा हूँ। पिछली बार वाली आप- बीती मन से सुनने के लिये आभार। मुझे आपके समय की कद्र है और मै आपके कुछ अनमोल पहलुओं की आराधना करता हूँ। पीढ़ी दर पीढ़ी लोग और बुद्धिमान , धनवान होते गए। हर तरफ चकाचौंध बढ़ती गयी । रंगों पर रंग चढ़ते गये। आज की हवा में एक अजीब सी गर्मी है। बाहर भी लोगों के अंदर भी। किस बात की है , सोंच रहा हूँ। मेरे यहाँ अब बैठकी करने वाले पंछी नहीं रहे। बरसात में अब उनके घोंसले मुझे हार की तरह नहीं सजाते। लेकिन मुझे खेद इस बात का है की वो बिना बताये कहीं चले गए। और अब चिट्ठी भी नहीं लिखते। इस ताप की हवा में वो संताप रहित हों , मैं मंगल कामना करता हूँ। जमीन वाले लोगों की बात करें तो अब छत पर थपुआ-नारिया नहीं दिखता। माटी माटी की मोहताज़ हो गयी है। कच्चे घर अब पक्के बन गए हैं। अमूमन हर घर की दीवारों को घेरती हुयी एक बड़ी दीवार होती है। शायद घर को एक बार और घेर कर ज्यादा सुरक्षित महसूस करते हों ? या फिर आते जाते लो...