संदेश

मई, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

‘गंगा मैया ने बुलाया है’ (कविता)

चित्र
( यह कविता उसी समय लिखी गई थी, जब भारत माँ के बच्चे अकाल कोरोना की बलि चढ़ रहे थे और गंगा मैया अपने घाटों की दशा देख जमके पत्थर हो गई थीं! किन्हीं कारणों से प्रकाशित नहीं हो पाई।) (कोरोनो की लहर में बलिदान हुए अपनों को समर्पित। गंगा माँ की व्यथा) भाग-१: माँ की पीर ‘गंगा मैया ने बुलाया है’ ऐ बेटे कहाँ हो! बज्रपात पड़ा है, मेरे लाल, कहाँ हो? मेरे घाट पटे जा रहे हैं,वे  मेरा माथा ढँके जा रहे हैं, मेरे कंधे टूट रहे हैं, मेरे हाथ सारे कटे जा रहे हैं। सूखे पेड़ जलकर भस्म हो चले हैं, हरे-भरे अब अकाल धुंध हो रहे हैं। मैं पृथ्वी अवतरण का मूल भूली नहीं हूँ, मैं माँ हूँ, अकाल मोक्ष की सूली नहीं हूँ। मैं बहती हूँ सबके कल्याण के लिए, प्यास बुझाने, पोषण करने के लिए। काली घटाओं को काटने, हर तिनका हरा करने के लिए, तुलसी-दल ही नहीं, मैं आई गंगाजल बनने के लिए। अब बच्चे बिन बुलाये गोद आ रहे हैं, एक-एक कर मेरी कोख में समा रहे हैं। वे कराह रहे, माँ! मेरे पीछे छूटा अधूरा संसार है, ऐसे क्यों बुलाया? अभी तो मोक्ष भी दुश्वार है। कोख सूनी, मांग सूनी, सूनी बहुत कलाई है, घरों का कोना सूना, विरह यादों की परछाई है।