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सुधिजनों का साथ संघर्ष को शिखर बनाता है। एक संस्मरण।

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फ़रवरी, साल २०१९ । गिलट बाज़ार, बनारस।  यू॰पी॰ कॉलेज से निकलने वाले छात्रों के चरित्र पे वहाँ के गुरुजनों की अदृश्य छाप रहती है। गुरुजनों में जब गुरु का नाम डॉ. धीरेन्द्र सिंह हो, तो यह छाप अदृश्य नहीं, छलकती  रहती है। बहती रहती है।  डी॰ सिंह सर जी से आशीर्वाद लेने के लिए उनके कुटीर पहुँचा। सर जी ने मेरे लिए कॉलेज का सुप्रसिद्ध लाल पेड़ा पहले ही मँगा के रखा था। एक लाल पेड़ा खाया। फिर सर ने कहा कि बाक़ी डब्बे का लेके जाना। प्रसाद समझ के मैंने भी रख लिया।बेझिझक! फिर सर जी ने कहा चलो चाय पीते हैं। गली के बाहर मुख्य सड़क के किनारे चाय की दुकान। सर बेंच पे बैठ गए। मैं बैठने की सोच भी नहीं सकता था। कुछ भी हो, मेरे लिए चाय की दुकान कक्षा ११, बी॰१ के रूप में दिख रही थी।मैं सर जी के बग़ल में खड़ा अपनी चाय की कुल्हड़ का इंतज़ार कर रहा था। सर ने एक-दो बार बैठने जाने के लिए बोला। मैंने अनसुनी कर दी। फिर वो मेरी मन: स्थिति को भाँप लिये और बोले, “बैठ जाओ बेटा, ये विद्यालय नहीं है…” फिर जैसे-तैसे मैं दुबक के बैठा। इस फ़ोटो में मेरी असहजता के बारे में मेरी बेटी ने पूछा। मैंने कहा कि इसे समझने के लिए आ

ओस के मोती

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सादर प्रणाम, किसी शायर की ग़ज़ल…। ग़ज़ल का एक शेर। किसी बात के लिए लिखा गया शेर उस माहौल को देखते ही मन को छू जाता है। जैसे, पैसे के पीछे अंधाधुंध दौड़ते आदमी को देखके जावेद अख़्तर साहब के इस शेर का ख़ुद-बख़ुद हरा हो जाना: सिक्के गिन-गिनके हाथ मेरा खुरदुरा हुआ, जाती रही लम्स(छुअन) की गर्मी, बुरा हुआ। ये तो रही बात कभी-कभार छू जाने वाले शेरों की। कुछ महीनों से डॉ. बशीर बद्र साहब का लिखा यह शेर रोज़ाना सुबह ताज़ा हो जाता है। घर के बाहर पड़ी घास पे जमा ओस की बूँदों को देखकर।  कह देना समुन्दर से हम ओस के मोती हैं,  दरिया की तरह तुझसे मिलने नहीं आएँगे। ओस की बूँदों का अस्तित्त्व कुछ घण्टों का होता है। वे सुबह सूर्य की रोशनी पाकर मोती जैसी चमकाती हैं। दिन चढ़ने पे ग़ायब हो जाती हैं। जन्म तो ओस,  विलीन हुईं, तो भी ओस !  बीच में उनका अस्तित्त्व न बदला, न खोया। दूसरी ओर दरिया, जो सागर से मिलने जाता है और अपना अस्तित्त्व खो देता है। इस अनमोल बात को सुबह याद दिलाने के लिए का  ओस का   आभार।  बशीर साहब का इस ज़हीन तौफ़े के लिए शुक्रिया । -काशी की क़लम