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तुलसी दल

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  गाँव नवलपुर। लीलावती, अपने पति और दो नन्हीं बेटियों के साथ बसर कर रहीं थीं। पतिदेव की बाज़ार में ठीक चौराहे पर एक दुकान थी, अपनी।  उसी में रोज़मर्रा के सामान बेचकर परिवार का गुज़ारा चलता था। मगर  पतिदेव को भगवान का बुलावा ज़ल्दी आ गया।  पतिदेव रहे नहीं, बच्चियाँ दोनों छोटी थीं, जिनकी देखभाल लीलावती के सिवाय करने वाला कोई और था नहीं। ऐसे में घर का खर्च कैसे चलता? आख़िर चूल्हा जलने के लिए आमदनी तो होनी चाहिए न। गाँव के बहुत सारे लोगों ने लीलावती से सहानुभूति दिखाते हुए अनेकों सुझाव दिए। कोई बोलता कि विधवा पेंशन पास करवा देंगे। तो कोई कन्या धन की योजना बताता। फिर बड़े होने पर बेटी पढ़ाओ की योजना, फिर बेटी ब्याहो योजना! योजना सब बताते थे सरकार की ही, लेकिन भूमिका ऐसी बाँधते, जैसे वे ही सरकार हों। जब अपना वज़न हल्क़ा हो, तो दुसरे का हल्का-सा काम भी भारी एहसान बन जाता है। लीलावती निश्छल थीं। वो लोगों का एहसान मानतीं थीं। उनको लगता था कि अगर कोई भले ही साथ हाथ पकड़कर न चले, लेकिन रास्ते पर उजियारा करने वाले का एहसान चुकता नहीं किया जा सकता। उनके हिसाब से रास्ता दिखाने के मूल्य को पैसे से आँका नहीं