ज़िंदगी की दुल्हन (कविता)

ज़िंदगी की दुल्हन संग चल रही है मेरी तेज़ घड़ी से तंग चल रही है। संग जीके भी ये कैसी दीवार है! न घूँघट उठा न हुआ दीदार है। जी रहे हैं या बिताये जा रहे हैं? ज़िंदगी रस्म-सी निभाये जा रहे हैं। घड़ियाँ बदल-बदलके देख रहा हूँ, कोई तो अपना वक़्त बताएगी, निरेख रहा हूँ। ज़िंदगी हर पल नया अफ़साना है, यह दुल्हन तो रंग-रूप का ख़ज़ाना है। सूखा है बाढ़ है पतझड़ या बहार है ज़िन्दगी जो भी है, तुझसे प्यार है। -काशी की क़लम