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कला समाज की आत्मा है, जीवन्त समाज के लिए आत्मा का होना आवश्यक है।

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 विज्ञान और कला। मैं उस जगह से आता हूँ, जहाँ कला के छात्र को मंद बुद्धि और न जाने कौन-कौन-से तमगों से विभूषित किया जाता था। पढ़ाई में कम रुचि रखने वाले लोग by default कला के विषय ले लेते थे। लेकिन जब मेधावी लोग कला की ओर रुख़ करते थे, उनकी बौद्धिक क्षमता पे भी सवालिया निशान लगते थे। ये निशान दुखद थे। क्योंकि इतिहास, भूगोल, भाषा, संगीत, चित्रकारी, इत्यादि दिमाग़ से अधिक हृदय से होता है। समय के साथ कला का यह चित्र सुधरा है, लेकिन हवा द्वारा पत्त्थर पे की जा रही नक़्क़ाशी की रफ़्तार से! कला वाले को हमेशा अपनी क़ाबिलियत समाज को साबित करनी पड़ती है। कतिपय अपवाद हो सकते हैं, पर कला की साधना अभी भी बहुतेरे समाजों में एक बौद्धिक कलंक है। यदि विज्ञान की प्रगति के सापेक्ष कला की प्रगति की बात करें, तो कला बहुत पीछे छूट गई है। जहाँ विज्ञान ने चाँद को छू लिया है, वहीं कला मिश्र की सभ्यता की तरह अपने अस्तित्व और अस्मिता की लड़ाई लड़ रही है। आख़िर कला से दुराव के क्या कारण हैं? सबसे पहले जीवन यापन के मूलभूत साधनों को जुटाने की बात आती है। भूखे के पास न तो स्वाद के लिए जिह्वा होती है और न ही अभिव्यक्